शनिवार, 30 जुलाई 2011

कहानीः आत्मसंतोष की दौलत

एक गांव में एक गरीब आदमी रहता था। वह बहुत मेहनत करता, अपनी ओर से पूरा श्रम करता, लेकिन फिर भी वह धन न कमा पाता। इस प्रकार उसके दिन बड़ी मुश्किल में बीत रहे थे। कई बार तो ऐसा हो जाता कि उसे कई-कई दिन तक सिर्फ एक वक्त का खाना खाकर ही गुज़ारा करना पड़ता। इस मुसीबत से छुटकारा पाने का कोई उपाय उसे न सूझता।

एक दिन उस गरीब आदमी को एक महात्माजी मिल गए। गरीब ने उन महात्माजी की बहुत सेवा की। महात्माजी उसकी सेवा से प्रसन्न हो गए और उसे धन की देवी की आराधना का एक मंत्र दिया। मंत्र से कैसे देवी की स्तुति व स्मरण किया जाए, उसकी पूरी विधि भी महात्माजी ने उसे अच्छी तरह समझा दी।

गरीब उस मंत्र से देवी की नियमित प्रार्थना करने लगा। कुछ दिन मंत्र आराधना करने पर देवी उससे प्रसन्न हुईं और उसके सामने प्रकट हुईं। देवी ने उस गरीब से कहा, ‘मैं तुम्हारी आराधना से बहुत प्रसन्न हूं। बोलो, क्या चाहते हो? नि:संकोच होकर मांगो।’

देवी को इस प्रकार अपने सामने प्रकट हुआ देख वह गरीब घबरा गया। क्या मांगा जाए, यह वह तुरंत तय ही नहीं कर पाया, इसलिए हड़बड़ाहट में बोल पड़ा, ‘देवी, इस समय तो नहीं, हां कल मैं आप से उचित वरदान मां लूंगा।’ देवी अगले दिन प्रात: आने के लिए कहकर अंतध्र्यान हो गईं।

घर जाकर गरीब सोच में पड़ गया कि देवी से क्या मांगा जाए? उसके मन में आया कि उसके पास रहने के लिए घर नहीं है, इसलिए देवी से यही सबसे पहले मांगा जाए। अब सवाल आया कि घर कैसा होना चाहिए। वह घर के आकार-प्रकार व उसमें होने वाली विभिन्न सुख-सुविधाओं के बारे में विचार करने लगा। फिर उसने सोचा कि जब देवी मुझे मुंहमांगा वरदान देने के लिए तैयार हैं, तो केवल घर ही क्यों मांगू। ये ज़मींदार लोग गांव के सब लोगों पर रौब गांठते हैं, जब देखो तब हुक्म चलाते हैं। इसलिए देवी से वर मांगकर मैं ज़मींदार हो जाऊं, तो अच्छा रहे। यह सब सोचकर उसने ज़मींदारी मांगने का निर्णय कर लिया।

ज़मींदार बनने का विचार आने के बाद वह सोचने लगा कि आखिर जब लगान भरने का समय आता है, तब ये ज़मींदार भी तो तहसीलदार साहब की आरज़ू-मिन्नतें करते हैं। इस प्रकार इन ज़मींदारों से बड़ा तो तहसीलदार ही है, इसलिए जब बनना ही है तो तहसीलदार क्यों न बन जाऊं। इस तरह वह तहसीलदार बनने की इच्छा करने लगा। अब वह अपने इस निर्णय से खुश था।

लेकिन, उसने मन में कुछ न कुछ चलता ही रहता। अब कुछ देर बाद उसे जिलाधीश का ध्यान आया। वह जानता था कि जिलाधीश साहब के सामने तहसीलदार भी कुछ नहीं है। तहसीलदार तो भीगी बिल्ली बना रहता है जिलाधीश के सामने। इस तरह

उसे अब तहसीलदार का पद भी फीका दिखाई पड़ने लगा और उसकी जिलाधीश बनने की इच्छा बलवान हो उठी। इस प्रकार उसकी एक से एक नवीन इच्छा बढ़ती चली गईं। वह सोचने-विचारने में ही इतना फंस गया कि यह तय नहीं कर पाया कि क्या मांगा जाए। उसी सोचने की चिंता में दिन तो बीता ही, रात भी बीत गई।

दूसरे दिन सवेरा हुआ। गरीब आदमी अब तक भी कुछ निर्णय न कर पाया था कि उसे क्या वरदान मांगना चाहिए। उधर ज्यों ही सूरज की पहली किरण पृथ्वी पर पड़ी, त्यों ही देवी उसके सामने प्रकट हो गईं। उन्होंने उस गरीब से पूछा, ‘बोलो तुम क्या वरदान मांगाना चाहते हो? अब तो तुमने सोच लिया होगा कि तुम्हें क्या मांगना है?’

गरीब ने हाथ जोड़कर कहा, ‘देवी, मुझे कुछ नहीं चाहिए। मुझे तो सिर्फ भगवान की भक्ति और आत्मसंतोष का गुण दीजिए। यही मेरे लिए पर्याप्त है।’
देवी ने पूछा, ‘क्यों, तुमने घर-द्वार, ऐशो-आराम या धन-दौलत क्यों नहीं मांगी?’

गरीब विनम्रता से बोला, ‘मां, मेरे पास दौलत नहीं आई, बस आने की आशा मात्र हुई, तो मुझे उसकी चिंता से रातभर नींद नहीं आई। यदि वास्तव में मुझे दौलत मिल जाएगी, तो फिर नींद तो एकदम विदा ही हो जाएगी। साथ ही न मालूम और कौन-कौन सी मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा। इसलिए मैं जैसा हूं, वैसा ही रहना चाहता हूं। आत्मसंतोष का गुण ही सबसे बड़ी दौलत होती है, आप मुझे यही दीजिए। साथ ही यह संसार सागर पार करने के लिए भगवान नाम के स्मरण का गुण दीजिए।’
देवी ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा और आशीर्वाद देकर अंतध्र्यान हो गईं। वह गरीब पहले की तरह खुशी से अपना जीवन बिताने लगा। फिर उसे कभी भी धन की लालसा नहीं हुई।
इस्लामाबाद. पाकिस्तान के बलूचिस्‍तान प्रांत में रहने वाले हिंदुओं की सुरक्षा में सरकार नाकाम साबित हुई है। नतीजतन हिंदू मुल्‍क छोड़ कर भारत में बसना चाह रहे हैं।
बलूचिस्‍तान के 100 हिंदू परिवार भारत में शरण लेने का प्रयास कर रहे हैं। बलूचिस्तान में हिंदू परिवार के सदस्यों के साथ बड़े पैमाने पर अपहरण और फिरौती वसूलने की घटनाएं हो रही हैं। प्रशासन से भी पर्याप्त सुरक्षा न मिलने के कारण, अब वे भारत जाने और वहीं रहने का प्रयास कर रहे हैं। कुछ दिन पहले एक अधिकारी के हवाले से खबर आई थी कि ऐसे परिवारों की संख्‍या मात्र 27 है, लेकिन यहां के एक अखबार 'द एक्सप्रेस ट्रिब्यून' के अनुसार ऐसे परिवारों की संख्‍या सौ से भी ज्‍यादा है।
बलूचिस्तान के दक्षिणी पश्चिमी हिस्से में हाल में हिंदुओं के अपहरण की कई वारदात हुई हैं। पिछले साल करीब 291 व्यक्तियों का अपहरण किया गया, जिसमें अधिकांश हिंदू थे। अकेले राजधानी क्वेटा में एक साल में 8 व्यक्तियों का अपहरण हुआ है, जिनमें से 4 हिंदू थे। नसीराबाद जिले में भी हालात काफी खराब हैं। यहां 2010 में 28 व्यक्तियों का अपहरण किया गया, जिसमें से आधे अल्पसंख्यक समुदाय के थे। 
बलूचिस्तान के मस्तांग क्षेत्र के पांच हिंदू परिवार भारत में शरण ले चुके हैं और बाकी भी भारत आने की कोशिश कर रहे हैं। यहां रहने वाले विजय कुमार ने कहा यहां रहना हिंदुओं के लिए सुरक्षित नहीं है। एक अन्य व्यक्ति सुरेश कुमार ने कहा कि यहां कानून-व्यवस्था नहीं के बराबर है और हिंदुओं को परेशान किया जा रहा है।
अखबार में छपी रिपोर्ट के अनुसार अपहरण किए गए अधिकांश पीड़ित भारी रकम चुका कर ही रिहा हुए हैं। लेकिन पीड़ित परिवार इस बात का खुलासा नहीं कर रहे कि उन्होंने कितनी रकम चुकाई क्योंकि उन्हें डर है कि वे फिर से अपराधियों का निशाना बन सकते हैं।
करीब 16 महीने पहले यहां के जाने-माने व्यापारी जुहारी लाल का अपहरण कर लिया गया, लेकिन आज तक उनका कुछ पता नहीं चला है। हाल ही में पाकिस्तान में धार्मिक गुरु लख्मीचंद गर्जी का अपहरण कर लिया गया, जिनका अभी तक कुछ अता पता नहीं है। सरकार बस चिंता भर जता रही है। बलूचिस्तान के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री बसंतलाल गुलशन के अनुसार इन घटनाओं से सरकार चिंतित है।
बलूचिस्तान में हुआ था हिंदुओं का नरसंहारबलूचिस्‍तान में हिंदुओं पर जुल्‍म की दास्‍तां पुरानी है। यहां मार्च 2005 में सुरक्षा बलों ने हिंदुओं पर गोलियां चलाकर 33 हिंदुओं को मार दिया था। मरने वालों में अधिकांश महिलाएं और बच्चे थे। इसके बाद कई हजारों अल्पसंख्यकों ने अपने घर छोड़ दिए थे। और तो और, यह घटना पूरी तरह दबा गई। नरसंहार का खुलासा जनवरी 2006 में हुआ, जब पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग के प्रतिनिधि वहां पहुंचे। आयोग को स्थानीय निवासियों ने वीडियो टेप भी उपलब्ध कराए, जिसमें इस हत्याकांड के सबूत थे।
1947 में बंटवारे के वक्‍त बलूचिस्तान में हिंदू जनसंख्या 22 फीसदी थी, जो अब घटकर केवल 1.6 फीसदी रह गई है। अल्पसंख्यक आयोग की 2003 में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार हिंदुओं के मुस्लिम बस्तियों से गुजरने पर आपत्ति व्यक्त की जाती है। हिंदू छात्राओं को जबरिया मुस्लिम बनाया जा रहा है। हिंदुओं के धर्मस्थल तोड़े जा रहे हैं। कुछ समय पहले तक हिंदू इस इलाके में आर्थिक रूप से काफी संपन्न होते थे, लेकिन मुस्लिम कट्टरपंथियों के कारण, अधिकांश अब यहां से जा चुके हैं। सरकारी नौकरियों में हिंदुओं की संख्या काफी कम है, लेकिन जो भी हैं, वे भी परेशान किए जा रहे हैं।
पाकिस्तान में हिंदू, सिख और ईसाई जैसे अल्पसंख्यक समुदायों के साथ बहुसंख्यक अच्छा बर्ताव नहीं करते हैं। कई हिंदू परिवारों को अपना पुश्तैनी घर छोड़ने और मंदिर को तोड़े जाने के फरमान जारी होते रहते हैं। पेशावर जैसे कई शहरों में ऐसे फरमान जारी हो चुके हैं। हिंदु लड़कियों का अपहरण करके उनके साथ जबर्दस्ती शादी करने और धर्म परिवर्तन की कई घटनाएं हो चुकी हैं। यही वजह है कि १९४८ में पाकिस्तान में जहां हिंदुओं की आबादी करीब १८ फीसदी थी, वही अब घटकर करीब दो फीसदी हो गई है।
पाकिस्तान में तालिबानी कट्टरपंथियों का कहर पिछले कुछ सालों से हिंदू परिवारों पर भी टूट रहा है। हिंदू परिवार की लड़कियों का अपहरण और उनका जबरन धर्म परिवर्तन अब आम बात हो गई है। सरकारी तंत्र ने भी कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेक दिए हैं।
हजारों हिंदू खटखटा रहे भारत का दरवाजा 
एक आकलन के मुताबिक पिछले छह वर्षो में पाकिस्तान के करीब पांच हजार परिवार भारत पहुंच चुके हैं। इनमें से अधिकतर सिंध प्रांत के चावल निर्यातक हैं, जो अपना लाखों का कारोबार छोड़कर भारत पहुंचे हैं, ताकि उनके बच्चे सुरक्षित रह सकें।
2006 में पहली बार भारत-पाकिस्तान के बीच थार एक्सप्रेस की शुरुआत की गई थी। हफ्ते में एक बार चलनी वाली यह ट्रेन कराची से चलती है भारत में बाड़मेर के मुनाबाओ बॉर्डर से दाखिल होकर जोधपुर तक जाती है। पहले साल में 392 हिंदू इस ट्रेन के जरिए भारत आए। 2007 में यह आंकड़ा बढ़कर 880 हो गया। पिछले साल कुल 1240 पाकिस्तानी हिंदू भारत जबकि इस साल अगस्त तक एक हजार लोग भारत आए और वापस नहीं गए हैं। वह इस उम्मीद में यहां रह रहे हैं कि शायद उन्हें भारत की नागरिकता मिल जाए, इसलिए वह लगातार अपने वीजा की मियाद बढ़ा रहे हैं।
पाकिस्‍तान में हिंदू:-पाकिस्‍तान की आबादी का करीब 2.5 फीसदी हिस्‍सा यानी 26 लाख हिंदुओं का है।
हिंदू समुदाय करीब पूरे पाकिस्‍तान में फैला हुआ है और 95 फीसदी हिंदू सिंध प्रांत रहते हैं।
सिंध का थारपरकर जिला ही ऐसा है जहां हिंदू बहुमत (51 फीसदी) हैं। इस प्रांत के कुछ अन्‍य जिलों में भी हिंदुओं की आबाद है जिसमें मीरपुर खास (41 फीसदी), संगहार (35 फीसदी), उमरकोट (43 फीसदी)।
पाकिस्‍तान में रहने वाले हिंदुओं में करीब 82 फीसदी पिछड़ी जाति से संबंधित हैं। इनमें अधिकतर खेतीहर मजदूर हैं।
थारपरकर में हिंदुओं की अपनी जमीन भी है।
पाकिस्‍तान की नेशनल असेंबली में हिंदू सदस्‍य हैं- किशन भील, ज्ञान चंद और रमेश लाल।
कराची, हैदराबाद, जकोबाबाद, लाहौर, पेशावर और क्‍वेटा जैसे कुछ शहरों में भी हिंदुओं की आबादी रहती है।
फोटो कैप्‍शन: पाकिस्‍तान में उजाड़े गए हिंदुओं के घर की फाइल तस्‍वीर।
आपकी राय पाकिस्तान में लंबे समय से अल्पसंख्यकों के साथ ज्यादती की जा रही है। आखिर कौन है इसका जिम्मेदार? क्या पाकिस्तान सरकार अपना संवैधानिक दायित्व निभाने में सफल रही है? क्या भारत सरकार को इसमें हस्तक्षेप कर पाकिस्तान सरकार से बातचीत करना चाहिए? क्या भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह मामला उठाना चाहिए? क्या भारत सरकार को पाकिस्तान में सताए हुए अल्पसंख्यकों, जिनमें हिंदू और सिख दोनों शामिल हैं, को शरण देना चाहिए?  इन सभी मुद्दों पर आप भी दे सकते हैं अपनी राय। नीचे कमेंट बॉक्स में अपनी राय लिख कर सबमिट कर दुनिया भर के पाठकों से साझा कर सकते हैं।

शनिवार, 23 जुलाई 2011

Koi ilzam  lagakar to saja di hoti.Fir meri lach sare bazar jala di hoti.Itni nafrat thi to pyar se dekha hi kyu tha.Muze phle hi meri okat bata di hoti.Dekh kar zakham mere chura li aankhen tune.Puch kar kuch to zakhamo ki dawa di hoti.So jata me bhee chain se jana.Tune agar shok se anchal ki hawa di hoti.Zindgi apni bhee chein se gujar jani the.Tune agar pyar se dil me jagah di hoti.....RamdevSingh

मंगलवार, 19 जुलाई 2011

मंगल पाण्डे 1857 की क्रान्ति का प्रथम शहीद

                                               मंगल पाण्डे 1857 की क्रान्ति का प्रथम शहीद
कहा जाता है कि पूरे देश में एक ही दिन 31 मई 1857 को क्रान्ति आरम्भ करने का निश्चय किया गया था, पर 29 मार्च 1857 को बैरकपुर छावनी के सिपाही मंगल पाण्डे (19जुलाई 1827-8 अप्रैल 1857) की विद्रोह से उठी ज्वाला वक्त का इन्तजार नहीं कर सकी और प्रथमस्वाधीनता संग्राम का आगाज हो गया। मंगल पाण्डे को 1857 की क्रान्ति का पहला शहीद सिपाही माना जाता है। उत्तर प्रदेश राज्य के बलिया जिले के नगवा गांव में पैदा हुए इस भारतीय वीर के नाम युग-युगांतर तक आजादी की क्रांति का इतिहास देशभक्ति और हिम्मत की प्रेरणा देता रहेगा।
उनतीस मार्च 1857, दिन रविवार-उस दिन जनरल जान हियर्से अपने बंगले में आराम कर रहा था कि एक लेफ्टिनेंट बद्हवास सा दौड़ता हुआ आया और बोला कि देसी लाइन में दंगा हो गया है। खून से रंगे अपने घायल लेफ्टिनेंट की हालत देखकर जनरल जान हियर्से अपने दोनों बेटों को लेकर 34वीं देसी पैदल सेना की रेजीमेंट के परेड ग्राउण्ड की ओर दौड़ा। उधर धोती-जैकेट पहने 34वीं देसी पैदल सेना का जवान मंगलपाण्डे नंगे पांव ही एक भरी बन्दूक लेकर क्वाटर गार्ड के सामने बड़े ताव मे चहलकदमी कर रहा था और रह-रह कर अपने साथियों को ललकार रहा था-अरे! अब कब निकलोगे तुम लोग अभी तक तैयार क्यों नहीं हो रहे हो?ये अंग्रेज हमारा धर्म भ्रष्ट कर देंगे। आओ, सब मेरेपीछे आओ। हम इन्हें अभी खत्म कर देते हैं। लेकिन अफसोस किसी ने उसका साथ नहीं दिया, पर मंगल पाण्डे ने हार नहीं मानी और अकेले ही अंग्रेजी हुकूमत को ललकारता रहा। तभी अंग्रेज सार्जेंट मेजर जेम्स थार्नटन ह्यूसन ने मंगल पाण्डे को गिरफ्तार करने काआदेश दिया। यह सुन मंगल पाण्डे का खून खौल उठा और उसकी बन्दूक गरज़ने लगी। सार्जेंट मेजर ह्यूसन वहीं लुढ़क गया। अपने साथी की यह स्थिति देख घोडे़ पर सवार लेफ्टिनेंट एडजुटेंट बेम्पडे हेनरी वॉग मंगल पाण्डे की तरफ बढ़ता है, पर इससे पहले कि वह उसेकाबू कर पाता, मंगल पाण्डे ने उस पर गोली चला दी। दुर्भाग्य से गोली घोड़े को लगी और वॉग नीचे गिरते हुये फुर्ती से उठ खड़ा हुआ।
अब दोनों आमने-सामने थे। इस बीच मंगल पाण्डे ने अपनी तलवार निकाल ली और पलक झपकते ही वॉग के सीने और कन्धे को चीरते हुये निकल गई। तब तक जनरल जान हियर्से घोड़े पर सवार परेड ग्राउण्ड में पहुंचा औरयह दृश्य देखकर भौंचक्का रह गया। जनरल हियर्से ने जमादार ईश्वरी प्रसाद को हुक्म दिया कि मंगल पाण्डेको तुरन्त गिरफ्तार कर लो पर उसने ऐसा करने से मना कर दिया। तब जनरल हियर्से ने शेख पल्टू को मंगल पाण्डे को गिरफ्तार करने का हुक्म दिया। शेख पल्टू ने मंगल पाण्डे को पीछे से पकड़ लिया। स्थिति भयावह हो चली थी। मंगल पाण्डे ने गिरफ्तार होने से बेहतर मौत को गले लगाना उचित समझा और बन्दूक की नाल अपने सीने पर रख पैर के अंगूठे से फायर कर दिया।
लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था, सो मंगल पाण्डे सिर्फ घायल होकर ही रह गया। तुरन्त अंग्रेजी सेना ने उसे चारों तरफ से घेर कर बन्दी बना लिया और मंगल पाण्डे पर कोर्ट मार्शल का आदेश हुआ। अंग्रेजी हुकूमत ने 6 अप्रैल को फैसला सुनाया कि मंगल पाण्डे को 18 अप्रैल को फांसी पर चढ़ा दिया जाये। पर बाद में यह तारीख 8 अप्रैल कर दी गयी, ताकि विद्रोह की आगअन्य रेजिमेण्टो में भी न फैल जाये। मंगल पाण्डे के प्रति लोगों में इतना सम्मान पैदा हो गया था कि बैरकपुर का कोई जल्लाद फांसी देने को तैयार नहीं हुआ। नतीजन कलकत्ता से चार जल्लाद बुलाकर मंगल पाण्डे को 8 अप्रैल, 1857 को फांसी पर चढ़ा दिया गया। मंगल पाण्डे को फांसी पर चढ़ाकर अंग्रेजी हुकूमत ने जिस विद्रोह की चिंगारी को खत्म करना चाहा, वह तो फैल ही चुकी थी और देखते ही देखते इसने पूरे देश को अपने आगोश में ले लिया। ओर इस तरह मंगल पाण्डे आजादी का प्रथम शहीद कहलाया।....

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

चौमासै री बिरखा रा रंग न्यारा


चौमासै री बिरखा रा रंग न्यारा । तपती गरमी अर फंफेड़ण आळी लू । इण रै बिच्चै छांटां रो छमको । सुक्की धरती । कळझळता रूंखड़ा । लटपटाईजता घास अर बांठका । तिरस साम्भ भटकता डांगर । पाणी पाणी करता पिराण छोडता पंखेरु । रुंआंड़ी उपाड़तो किरसो । मुरधर मेँ मोरां रै कंठां में टसकता बिरखा रा गीत । डेडरां रै ताळवै चिपती जीभ । काछबां रा पग पिंड मेँ कैद ।... चौगड़दै हाहाकार । आस कै होसी कदै ई तो जळजळाकार । च्यारुं कूंट बिरखा री चावना-ध्यावना । क्या कैवणां है ऐड़ी चाईजती घड़ी मेँ बिरखा रा ।

मुरधर मेँ बिरखा री पैली ई छांट री रंगत निरवाळी । बिरखा रा अणूंता कोड । मोरिया नाचण ढूकै । डेडर कंठ सम्भाळै अर लाम्बी तान टेरै । काछबा देखै जळव्हाळा । रूंखड़ा लैरिया करै । बांठका-झाड़का पान सोधै । सीवण, धामण,बूर, भुरट, मुरट , खीँप,बूई सिणियां अर डचाब पसवाड़ो फोरै । रोई आप रा हरियल गाभा अंवेरै । किरसो हळ पंजाळी सीध मेँ करै । धरती पेट पड़िया बीज उजाळै । चौमासो मुरधर मेँ उच्छब रै उनमान । चौगड़दै पाणी रा गुणगाण । बिरखा रा नाप आंगळ्यां माथै । अर आंगळ्यां खेत खानीं । खेत मेँ चिग बापरै तो डांगरां रा मन उडारु ।

खेतीखड़ आपरै धंधै । टाबरिया रम्मतां मेँ । रम्मत मेँ माटी रा घर । छोरयां हींडा री होड मेँ । लुगायां तीजां री त्यारयां मेँ । नूंईँ बीनण्यां तकावै पीवरिया । नूंआं परणीज्या मोट्यार पैलै सावण धण अळगाव मेँ बटबटीजै । खेतां मेँ लुगायां भेळी होवै । साथै रैवै जोधजुआन छोरयां-छापरयां-बीनण्यां । खेत मेँ रूंखां रै ऊंचा लाम्बा डाळां माथै घलै हींडा । पकै पकवान । पकोड़ा । चीलड़ा । चूरमां । गुलगुला । मालपूआ । पुड़ा । पछै हीँडीजै हींडा । लाम्बी लाम्बी ऊबल्यां मचकाईजै । ऊबली ऐकल अर जोड़ै सूं । ताळी । नाच । हंसी । ठठ्ठा । गीत । किलोळ । इण सब मेँ छूटै हांफड़ा । भळै थक हार बनभोजन नै ढूकै । सगळी भेळी जीम्मै । जीम जूठ घरां आवै । खेत बणाई चीजां घर रै बाकी लोगां मेँ बंटै । घर रा सगळा कोड सूं जीम्मै । छेकड़ सगळी थक हार सोवै ।

बिरखा मेँ तळाब , कुंड, बावड़ी आद स्सै भरीजै । लबालब । मोट्यार आं मेँ न्हावण ढूकै । गंठा बीड़ै । चुभ्यां लगावै । पाणीँ मेँ ऊंदा सूआं तिरै । गंठा बीड़णोँ ऐक कळा । हरेक नीँ बीड़ सकै गंठो । गंठो, ऊंची जाग्यां सूं पाणी मेँ कूदण री ऐक कळा । ऐक पग सीधो अर दूजै पग रो पंजो पैलड़ै पग रै गोडै माथै । तीखो रूप । सीधो पाणीं मेँ-देड़ेंदा । हब्बीड़ ऊपडै़ । पाणीं में जळेबी बणै । अर सगळा ताळी देंवता बोलै-फलाणैं जबरो गंठो बीड़ियो ! तळाब रै किनारै बिजिया[ भांग ] घोटीजै ! सगळा मिल भांग पीवै ! भांग पीयां पछै न्हावण री ऐक झुट्टी भळै लागै । न्हावंतां-न्हावंतां भांग असर सरू करै । भोख बधै !

न्हावण रै बाद तळाब माथै ई गोठ होवै । सीरा-पूड़ी, दाळ-बाटी-चूरमो अर पकोडा़ बणै ! मोगरी रो चूरमो भांग रै नसै में दूभर्या लगावै । बीकानेर रै हंसोळाव,संसोळाव,हरषोळाव,कोलायत​ अर सागर रै तळाबां माथै आं दिनां गोठां रा दौर चालै । बजरंग धोरै माथै भी रंग जमै । जोधपुर, उदयपुर,जैसलमेर,बाड़मेर,कोटा,बू​ंदी री तो गोठां नामी है । देस दिसावर गया लोग आं गोठां रा सुख लूंटण सारू पाछा आवै ! मुरधर में गोठां री मै’मा निरवाळी !

बुधवार, 6 जुलाई 2011

मौत के बाद की दुनिया कैसी है।


यह एक रहस्य ही है कि मौत के बाद की दुनिया कैसी है। शरीर छोडऩे के बाद आत्मा कहां जाती है और क्या इस दुनिया के अलावा भी कोई दुनिया है जहां इंसान को मृत्यु के बाद कर्मफल भोगने पड़ते हैं। किस्से कहानियों में नर्क की यातनाएं और स्वर्ग के सुखों के बारे में जो सुना है वह कितना सच है।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि आत्मा की यात्रा अनंत है और यह शरीर केवल इसके लिए एक साधन है। बिलकुल कपड़े की तरह। आत्मा जब एक शरीर छोड़ती है, तो फिर कहीं ओर वह दूसरा शरीर भी धारण करती है। ये बात भलीभांति सुनी और समझी हुई है लेकिन एक शरीर से दूसरे शरीर तक की यात्रा में आत्मा को किन-किन घटनाओं से गुजरना पड़ता है, यह सबसे अधिक रोमांच और जिज्ञासा का विषय है।

हिंदू धर्म ग्रंथों में आत्मा की अनंत यात्रा का विवरण कई तरह से मिलता है। भागवत पुराण, महाभारत, गरूड़ पुराण, कठोपनिषद, विष्णु पुराण,  अग्रिपुराण जैसे ग्रंथों में इन बातों का बहुत जानकारी परक विवरण मिलता है।



मौत के क्षण : क्या होता है जब आत्मा शरीर को छोड़ती है गरूड़ पुराण कहता है कि जब आत्मा शरीर छोड़ती है तो उसे दो यमदूत लेने आते हैं। जैसे हमारे कर्म होते हैं उसी तरह वो हमें ले जाते हैं। अगर मरने वाला सज्जन है, पुण्यात्मा है तो उसके प्राण निकलने में कोई पीड़ा नहीं होती है लेकिन अगर वो दुराचारी या पापी हो तो उसे बहुत तरह से पीड़ा सहनी पड़ती है। पुण्यात्मा को सम्मान से और दुरात्मा को दंड देते हुए ले जाया जाता है। गरूड़ पुराण में यह उल्लेख भी मिलता है कि मृत्यु के बाद आत्मा को यमदूत केवल 24 घंटों के लिए ही ले जाते हैं।

इन 24 घंटों में उसे पूरे जन्म की घटनाओं में ले जाया जाता है। उसे दिखाया जाता है कि उसने कितने पाप और कितने पुण्य किए हैं। इसके बाद आत्मा को फिर उसी घर में छोड़ दिया जाता है जहां उसने शरीर का त्याग किया था। इसके बाद 13 दिन के उत्तर कार्यों तक वह वहीं रहता है। 13 दिन बाद वह फिर यमलोक की यात्रा करता है।



आत्मा की गतियां
वेदों, गरूड़ पुराण और कुछ उपनिषदों के अनुसार मृत्यु के बाद आत्मा की आठ तरह की दशा होती है, जिसे गति भी कहते हैं। इसे मूलत: दो भागों में बांटा जाता है पहला अगति और दूसरा गति। अगति में व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिलता है उसे फिर से जन्म लेना पड़ता है। गति में जीव को किसी लोक में जाना पड़ता है।

अगति के चार प्रकार हैं क्षिणोदर्क, भूमोदर्क, तृतीय अगति और चतुर्थ अगति। क्षिणोदर्क अगति में जीव पुन: पुण्यात्मा के रूप में मृत्यु लोक में आता है और संतों सा जीवन जीता है, भूमोदर्क में वह सुखी और ऐश्वर्यशाली जीवन पाता है, तृतीय अगति में नीच या पशु जीवन और चतुर्थ गति में वह कीट, कीड़ों जैसा जीवन पाता है। वहीं गति के अंतर्गत चार लोक दिए गए हैं और जीव अपने कर्मों के अनुसार गति के चार लोकों ब्रह्मलोक, देवलोक, पितृ लोक और नर्क लोक में स्थान पाता है।



आत्मा का मार्ग
आत्मा की यात्रा का मार्ग पुराणों में आत्मा की यात्रा के तीन मार्ग माने गए हैं। जब भी कोई मनुष्य मरता है और आत्मा शरीर को त्याग कर उत्तर कार्यों के बाद यात्रा प्रारंभ करती है तो उसे तीन मार्ग मिलते हैं। उसके कर्मों के अनुसार उसे कोई एक मार्ग यात्रा के लिए दिया जाता है।

ये तीन मार्ग है अर्चि मार्ग, धूम मार्ग और उत्पत्ति-विनाश मार्ग। अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक और देवलोक की यात्रा के लिए है। धूममार्ग पितृलोक की यात्रा के लिए है और उत्पत्ति-विनाश मार्ग नर्क की यात्रा के लिए है।



कितने तरह के होते हैं नर्क
मुख्य नरक 36 हैं। उनमें भी अवीचि, कुम्भीपाक और महारौरव ये तीन मुख्यतम हैं। ये तीनों नरक समस्त नरकों या नरक लोक के अध: मध्य और ऊध्र्व भाग में स्थित हैं। 36 नरकों में से एक-एक के चार-चार उप नरक हैं। 

सीख लें 7 अंकों का यह जादू..! जीवनभर पाएंगे भरपूर सुख

व्यावहारिक जीवन में बुद्धिमान होने के बावजूद भी इंसान पशुवत व्यवहार करते देखा जाता है, किंतु पशुओं के स्वाभाविक खान-पान, दिनचर्या या जीवनशैली में बदलाव नहीं होता। यही कारण है कि बुद्धि को इंसान और पशु के बीच सबसे बड़ा फर्क भी माना जाता है। दरअसल, इस बात से यह भी साफ है कि बुद्धि का उपयोग ही अच्छे-बुरे कर्मों द्वारा इंसान के सुख-दु:ख नियत करता है।

बुद्धि ईश्वर की वह देन है, जो हर इंसान को प्राप्त होती है। किंतु धर्मशास्त्रों के मुताबिक इस बुद्धि का पोषण ज्ञान के साथ अनुभव और व्यवहार द्वारा भी होता है। ज्ञान, पुण्य कर्म और विचार बुद्धि को धार देते हैं। वहीं ज्ञान का अभाव, बुरे या पाप कर्मो से बुद्धि का नाश होता है।

हिन्दू धर्मशास्त्र महाभारत में सुखी जीवन के लिये ही बुद्धि के सही उपयोग से सुख की मंजिल तय करने के लिये ऐसा अंक गणित भी बताया गया है, जिसे सीखकर हर इंसान सांसारिक जीवन के संघर्ष में सफलता पा सकता है।

लिखा गया है कि -

एकया द्वे विनिनिश्चित्य त्रींश्चतुर्भिवशे कुरु।

पञ्च जित्वा विदित्वा षट् सप्त हित्वा सुखो भव।।

इस श्लोक में जीवन में कर्म, व्यवहार और नीति में बुद्धि के उपयोग द्वारा सुख बंटोरने के लिये 1 से लेकर 7 अलग-अलग सूत्रों को उजागर किया गया है। सरल शब्दों में जानते हैं यह अंक गणित -

एक यानी बुद्धि से दो यानी कर्तव्य और अकर्तव्य का निर्णय कर चार यानी साम, दाम, दण्ड, भेद द्वारा तीन यानी दुश्मन, दोस्त और तटस्थ को काबू में करें।

इनके साथ-साथ पांच यानी पांच इन्द्रियों के संयम द्वारा छ: यानी छ: नीतियों सन्धि- मेलजोल या मित्रता, विग्रह - संधि विच्छेद या मित्रता के रिश्ते न रखना, यान - सही मौके पर वार, आसन - विपरीत हालात में शांत रहना, द्वैधीभाव - ऊपर से मित्रता अंदर से शत्रुता का भाव और समाश्रय - सक्षम व सबल की पनाह लेना, समझें और जानें।

साथ ही सात यानी स्त्री, जूआ, मृगया यानी शिकार, नशा, कटु वचन, कठोर दण्ड और गलत तरीके से धन कमाने के बुरे गुण और कर्म को छोडऩा कठिन और विरोधी स्थितियों में किसी भी इंसान के लिये सुख का कारण बन जाते हैं।

अगर आपकी धर्म और उपासना से जुड़ी कोई जिज्ञासा हो या कोई जानकारी चाहते हैं तो इस आर्टिकल पर टिप्पणी के साथ नीचे कमेंट बाक्स के जरिए हमें भेजें।

इस ताकत से पाया जा सकता है भगवान को....

हर तरह से बलशाली बनने के इस समय में बाहुबल, धनबल, जनबल इन्हें भौतिक तौर-तरीकों से पाया जा सकता है। यह कोई बहुत कठिन काम नहीं होता। यह सब तो रावण के पास भी था, क्योंकि उसने अर्जित किया था। लेकिन आत्मबल की कमी उसमें भी थी और आज भी कई लोगों में रहती है।

लगातार प्रयास करते रहिए कि बाहर से सब तरह से सक्षम होने के साथ हम आत्मबली भी हों। इसकी शुरूआत आत्मज्ञान से होती है। आत्मज्ञान का अर्थ है स्वयं को जानना। अपने को जानने की पहली सीढ़ी है हम भीतर से क्या हैं? या यूं कहें हमारे भीतर हमारे अलावा और कौन रहता है?

जैसे ही इस सवाल के जवाब में हम थोड़ा गहरे उतरेंगे तभी हमें अनुभूति होगी हमारे भीतर परमात्मा रहता है और जितने उसके निकट जाएंगे उतना ही हम यह अधिक महसूस करेंगे कि हम ही परमात्मा हैं। हमारे भीतर रहकर ईश्वर ने हमें अपने जैसा बनाया है, लेकिन संभावना छोड़ दी है कि हम पहचानें या न पहचानें। हम भगवान की शानदार कृति हैं और वे हमारे भीतर बसे ही हैं।

इस अनुभव को बढ़ाने के लिए एक प्रयोग करें। जब भी हम कोई काम करें इस बात का दबाव स्वयं पर बनाएं कि हमारा हर कृत्य हमारी भगवत्ता को जरूर स्पर्श करे। यदि हम कुछ गलत कर रहे हैं तो हमारी भगवत्ता उससे अछूति नहीं है। फिर विचार करें परमात्मा अनुचित नहीं करता। चूंकि हम उससे कट गए हैं इसलिए जीवन में गलत शुरू हो गया है।

जैसे ही हम भीतर उससे जुड़ेंगे अनुचित अपने आप उचित में बदलने लगेगा। भीतर भगवान से जुडऩा ही आत्मबल है। कोई है जो हमसे सीधे-सीधे जुड़ा है। भीतर से उनका साथ होना बाहर हमारे व्यक्तित्व को ओज और तेजमय बना देगा। भीतर उतरने की शुरूआत करने के लिए सरल उपाय है जरा मुस्कराइए...

इसलिए बस मेरे शहर चली आई


उस स्टेशन पर तुम बदहवास सी दौड़ रही थी
गाड़ी तो आई नहीं थी ,पर तुम घबरा रही थी
कुछ इसे ही पलो मे टकराई थी तुम मुझ से
फिर सिलसिला शुरू हुआ मुलाकातों का
ना तुम थी मेरे शहर की, ना मै था तुम्हारे शहर का
मै अपना हक़ किसी और को दे चूका था
और तुम पर हक़ किसी और का था
ना जाने क्यों फिर भी ये दूरियां सिमटने लगी
मै तुमको समझ गया तुम मुझे समझने लगी
एक दूजे की आदत हो गए थे हम
और फिर ना जाने क्यों ये नजदीकियां चुभने लगी
नम आँखों से तुम मुस्कुराती हुई मुड गई थी
तुम ये ना समझना की मैने साथ छोड़ दिया था तुम्हारा
मै बस कुछ कदम पीछे हट गया था
...................................................
आज अरसे बाद तुम फिर मुझे मेरे शहर में क्यों दिख गई
मै बस लिपटना चाहता था एक बार तुमसे
तभी तुम्हारे होंठो ने बुदबुदाया , तुमको मुझ से कुछ काम था
एक बार झूठ ही सही कह देती ,की रह नहीं पाई बिन मेरे
इसलिए बस मेरे शहर चली आई

अिनवंश

सिर्फ 6 आदतें और बदल जाएगी आपकी जिंदगी

 
रोजमर्रा की आदतें वास्तव में आपको स्वस्थ रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। आइए जानते हैं कि आपकी क्या आदतें हैं और उनके मुताबिक आपको किन स्वास्थ्य संबंधित समस्याओं का खतरा हो सकता है और उनसे बचाव के बारे में...

बैली सपाट है

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑन एजिंग स्टडी से पता चलता है कि जिन महिलाओं की कमर पर ज्यादा चर्बी जमी होती है, उनकी आयु कम होने की संभावना 20 फीसदी अधिक होती है। खासतौर पर मेनोपॉज के बाद महिलाओं को पेट सपाट ही रखना चाहिए। विशेषज्ञ कहते हैं कि हार्मोनल बदलाव के चलते अतिरिक्त वजन पेट के इर्द-गिर्द ही एडजस्ट होता है। यदि आपकी कमर 35 इंच या इससे ज्यादा है तो ये करें।

- 20 मिनट की स्ट्रेंथ ट्रेनिंग दो या तीन बार करें।

- ओमेगा-3 फैटी एसिड के लिए अखरोट, अलसी या मछली और ताजे फल/सब्जियों का सेवन करें।

- 25 फीसदी मोनोसैचुरेटेड फैटी एसिड भोजन में शामिल करें।

टीनएज में हेल्दी रहें
जर्नल ऑफ पीडियाट्रिक्स के अध्ययन में जन्म से 25 वर्ष की उम्र के करीब 137 अफ्रीकन अमेरिकंस पर किए शोध में पाया गया कि किशोरावस्था में जिनका वजन अनियंत्रित था, उन्हें टाइप 2 डायबिटीज होने की आशंका अधिक होती है। अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन के अनुसार डायबिटीज के मरीजों के हृदय रोगों से पीड़ित होने की आशंका अन्य लोगों की तुलना में दो से चार गुना अधिक होती है।

जामुनी फूड पंसद है
जो लोग जामुनी रंग के ही फल जैसे ब्ल्यूबैरीज या काले अंगूर खाना पसंद करते हैं, उन्हें हृदयरोग व अल्जाइमर जैसी बीमारियां कम घेरती हैं। इन फलों में पॉलिफिनॉल नामक तत्व पाया जाता है, जो रक्त वाहिकाओं और आर्टरीज का लचीलापन बढ़ाता है। साथ ही मस्तिष्क की रक्त वाहिकाओं को भी स्वस्थ रखता है। यूनिवर्सिटी ऑफ सिनसिनाटी के कॉन्गनिटिव डिसऑर्डर सेंटर के निदेशक रॉबर्ट क्रिकोरियान कहते हैं कि नियमित रूप से इन फलों का एक कप सेवन करने से याद्दाश्त तेज होती है।

काम खुद ही करते हैं
70 से 80 वर्ष के करीब 302 बुजुर्गो पर किए गए शोध से सामने आया कि जो लोग अपने घरेलू काम जैसे घर की साफ-सफाई या कपड़े धोने जैसे काम दूसरों से न करवाकर खुद ही करते हैं, उनकी जल्दी मृत्यु की आशंका करीब 30 फीसदी तक कम हो जाती है।

सामाजिक जीवन जीते हैं
स्वीडन स्थित कैरोलिंस्का इंस्टीट्यूट के शोधकर्ताओं के अनुसार जो लोग सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय रहते हैं, उन्हें भूलने की बीमारी यानी डिमेंशिया होने का खतरा कम होता है। वहीं ऐसे लोग तनावग्रस्त भी कम होते हैं। यह अध्ययन 78 वर्ष से अधिक करीब 500 पुरुषों और महिलाओं पर किया गया था।

बन-ठनकर रहते हैं
अमेरिकन साइकोलॉजिस्ट के एक अध्ययन में पाया गया है कि जो लोग अपने लुक्स को लेकर बहुत सजग रहते हैं, वे तनावग्रस्त कम होते हैं। एमॉरी यूनिवर्सिटी में साइकोलॉजी के प्रोफेसर कोरे कीयेस कहते हैं कि जो लोग अपने व्यक्तित्व से खुश नहीं होते हैं या घर-परिवार की जिम्मेदारी निभाने के चक्कर में खुद को समय नहीं दे पाते हैं, वे अकसर किसी न किसी तनाव से घिरे ही रहते हैं। इससे बचना चाहिए।

रोज पीते-पीते पक्का बेवड़ा बन गया यह 'घोड़ा'

 
लंदन।वैसे तो आपने बहुत से महंगे और विलायती या उम्दा किस्म के जानवरों के बारे में सुना होगा लेकिन हम जिस जानवर के बारे में आपको बताने जा रहे हैं वह इन सबसे थोड़ा हट कर है.
ब्रिटेन के पश्चिमी मिडलैंड के शहर स्टेफोर्डशायर के एक पब में आपको इस जानवर के अनोखे व्यवहार के दर्शन भी हो सकते हैं. दरअसल, बेसिल नाम का यह घोड़ा शराब पीने का शौकीन है। अपने इस शौक को पूरा करने के लिए वह हर रविवार को नियमित तौर पर पब जाता है और वहां अपने इस शौक को पूरा करता है. यहाँ उसे उसका पसंदीदा शराब मार्सन्स पैडीग्री परोसा जाता है.
पब के मैनेजर गे वैलिस ने बताया, बेसिल हमारे यहां कई साल से शराब पीने आ रहा है। वो स्वभाव से बहुत शांत है। उसे खास गिलास में शराब परोसी जाती है। उसे पीते देखकर लगता है जैसे थकान उतारने के लिए वो शराब पीने का शौक रखता है। पब में मौजूद अन्य लोगों को भी उसका साथ देने में बहुत मजा आता है। ये लोग बेसिल को देखकर चौंकते नहीं है क्योंकि बाकी लोगों की तरह वो भी यहां का नियमित ग्राहक है।
मैनेजर ने बताया, नौ साल के बेसिल का मालिक यहां पिछले दस साल से आ रहा है और वो अपने घोड़े को भी अंदर लाने की कोशिश करता था। फिर हमने भी उसे बेसिल को अंदर लाने की इजाजत दे दी। अब वो अपने मालिक के साथ पिछले कुछ साल से लगातार पब में आ रहा है। हम उसे शराब के साथ खाने के लिए कुछ सब्जियां भी देते हैं। बेसिल के मालिक विलनेस ने बताया, एक बार जब मैं शराब पी रहा था तो बेसिल ने उसे पीने की कोशिश की। मैंने उसे भी उसका स्वाद चखा दिया। उसके बाद जब उसे भी पीने का चस्का लग गया। हालांकि हम उसे सीमित मात्रा में ही शराब देते हैं।

तीन बातें

तीन बातें चरित्र को गिरा देती हैं - चोरी, निंदा और झूठ।


तीन चीज़ों को कभी छोटा मत समझो - कर्जा, दुश्मन और बीमारी।
...


तीन चीज़ें हमेशा पर्दा चाहती हैं - दौलत, खाना और शरीर।


तीन चीज़ें हमेशा दिल में रखनी चाहिए - नम्रता, दया और माफ़ी।


तीन चीज़ें कोई चुरा नहीं सकता - अक्ल, हुनर और शिक्षा।


तीन चीज़ों पर कब्ज़ा करो - ज़बान, आदत और गुस्सा।


तीन चीज़ों से दूर भागो - आलस्य, खुशामद और बकवास।


तीन चीज़ों के लिए मर मिटो - धेर्य, देश और मित्र।


तीन बातें कभी मत भूलें - उपकार, उपदेश और उदारता। ....

चाँद अपना सफ़र ख़तम करता रहा


चाँद अपना सफ़र ख़तम करता रहा,
रात भर आसमान यूं पिघलता रहा, 
दिलों में याद का नश्तर चुभते रहे,
दर्द बन कर शमां दिल में जलता रहा,
...
वो जो दिल से हमें भुलाये बैठे थे,
दिल उनसे मिलने को मचलता रहा,
आंसू पलकों से ना छलका कभी,
दर्द वो चुपके से दिल में पलता रहा,
रोज़ आ कर शबनम रोती रही रात भर,
                                      मेरी तन्हाइयों का सफ़र यूं ही चलता रहा

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

जद तू मिलसी बेलिया करस्यूँ मन री बात ।

जद तू मिलसी बेलिया करस्यूँ मन री बात ।
बध बध देस्यू ओळमा भर भर रोस्यूँ बाँथ ॥


चैत ...
चुरावै चित्त नै चित्त आयो चित्तचोर ।
गौर बणाती गौरडी खुद बणगी गणगौर

बेली तरसै गांव मँ मन मँ तरसै हेत ।
घिर घिर तरसै एकली सेजाँ मँ परणेत ॥

भाँत भाँत री बात है बात बात दुभाँत ।
परदेशाँ रा लोगडा ज्यूँ हाथी रा दांत ॥


बडा बडेरा कैंवता पंडित और पिरोत।
बडै भाग और पुन्न सूँ मिलै गांव री मौत ।|

लोग चौकसी राखता खुद बांका सिरदार ।
बांकडला परदेस मँ बणग्या चौकीदार ॥

मरती बेळ्या आदमी रटै राम र्रो नांव ।
म्हारी सांसा साथ ही चित्त सू जासी गांव ॥

मै परदेशी दरद हूँ तू गांवा री मौज ।
मै हू सूरज जेठ रो तूँ धरती आसोज॥

बेमाता रा आंकङा मेट्या मिटे नै एक ।
गूंगै री ज्यू गांव रा दिन भर सुपना देख ॥


मायड रोयी रात भर रह्यो खांसतो बाप ।
जिण घर रो बारणो मै छोड्यो चुपचाप ॥



कुण चुपकै सी कान मै कग्यो मन री बात ।
रात हमेशा आवती रात नै आयी रात ॥


दोरा सोराँ दिन ढल्यो जपताँ थारो नाम ।
च्यार पहर री रात आ कीयाँ ढळसी राम ॥


प्रीत करी गैला हुया लाजाँ तोङी पाळ ।
दिन भर चुगिया चिरडा रात्यु काढी गाळ ॥

पाती लिखदे डाकिया लिखदे सात सलाम ।
उपर लिख दे पीव रो नीचै म्हारो नांम ॥

दीप जळास्यु हेत रा दीवाळी रो नाम ।
इण कातिक तो आ घराँ ओ ! परदेसी राम ॥

जोबण घेर घुमेर है निरखै सारो गांव ।
म्हारै होठाँ आयग्यो परदेसी रो नांव ॥

जीव जळावै डाकियो बांटै घर घर डाक ।
म्हारै घर रै आंगणै कदै न देख झांक ॥

मैडी उभी कामणी कामणगारो फाग ।
उडतो सो मन प्रीत रो रोज उडावै काग ॥

बागाँ कोयल गांवती खेता गाता मोर ।
जब अम्बर मँ बादळी घिरता लोराँ लोर ॥

बाबल रै घर खेलती दरद न जाण्यो कोय ।
साजन थारै आंगणै उमर बिताई रोय ॥

बाबल सूंपी गाय ज्यूँ परदेसी रै लार ।
मार एक बर ज्यान सूँ तडपाके मत मार ॥

नणद,जिठाणी,जेठसा दयोराणी अर सास ।
सगलाँ रै रैताँ थका थाँ बिन घणी उदास


खाणो पीणो बैठणो घडी नही बिसराम ।
बो जावै परदेस मँ जिण रो रूसै राम ||

सोमवार, 4 जुलाई 2011

कैसे लोगों के पास नहीं ठहरतीं देवी लक्ष्मी?

तार्किक होना या बुद्धिमान होना कोई बुरी बात नहीं है। इंसान को वही बात स्वीकारनी चाहिए, जो तर्क की कसौटी पर खरी उतरे या जिसे बुद्धि स्वीकार करे। किंतु तर्क और बुद्धि की भी अपनी सीमा होती है। देवी-देवताओं के विषय में भी लोगों की ऐसी ही दुविधा है। गणेश की सवारी चूहा हो या लक्ष्मी का वाहन उल्लू, इसपर सहसा कोई विश्वास नहीं करता। यहां तक कि देवी-देवताओं के अस्तित्व पर भी शंका-संदेह किया जाता है। जबकि वास्तविकता यह है कि देवी-देवताओं के जो चित्र बनाए गए हैं वे प्रतीकात्मक हैं, जो कि उनके गुणों को व्यक्त करने का जरिया या संकेत होते हैं।

उल्लू पर सवार लक्ष्मी-लक्ष्मी का वाहन उल्लू माना जाता है जो कि रात यानि अंधेरे का निवासी है। अंधेरा सदैव असत्यता और अज्ञानता को जन्म देता है। यहां उल्लू मूर्ख इंसान का प्रतीक है। उल्लू पर सवार लक्ष्मी अत्यंत चंचल मानी गई है। चंचल यानि कि जो एक जगह स्थिह ना रहे। मतलब यह हुआ कि, उल्लू जैसे अज्ञानी व्यक्ति के पास यदि किसी तरह की किस्मत या संयोग से लक्ष्मी आ भी गई तो वह टिकेगी नहीं। वह जैसे अचानक आई है वैसे ही चली भी जाएगी।

विष्णु प्रिया लक्ष्मी-जबकि मेहनती, ईमानदार और सच्चा इंसान वो समझदारी प्राप्त कर लेता है, जिससे देवी लक्ष्मी उसको छोड़कर नहीं जाती। ज्ञानी के पास जो लक्ष्मी आती है वह उल्लू पर सवार होकर नहीं बल्कि भगवान विष्णु के साथ गरुड़ पर सवार होकर आती है। जहां सत्य और ज्ञान है वहां विष्णु है, जहां विष्णु हैं वहां उनकी चिरप्रिया लक्ष्मी स्थाई निवास करती है।





कैसे लोगों के पास नहीं ठहरतीं देवी लक्ष्मी?

तार्किक होना या बुद्धिमान होना कोई बुरी बात नहीं है। इंसान को वही बात स्वीकारनी चाहिए, जो तर्क की कसौटी पर खरी उतरे या जिसे बुद्धि स्वीकार करे। किंतु तर्क और बुद्धि की भी अपनी सीमा होती है। देवी-देवताओं के विषय में भी लोगों की ऐसी ही दुविधा है। गणेश की सवारी चूहा हो या लक्ष्मी का वाहन उल्लू, इसपर सहसा कोई विश्वास नहीं करता। यहां तक कि देवी-देवताओं के अस्तित्व पर भी शंका-संदेह किया जाता है। जबकि वास्तविकता यह है कि देवी-देवताओं के जो चित्र बनाए गए हैं वे प्रतीकात्मक हैं, जो कि उनके गुणों को व्यक्त करने का जरिया या संकेत होते हैं।

उल्लू पर सवार लक्ष्मी-लक्ष्मी का वाहन उल्लू माना जाता है जो कि रात यानि अंधेरे का निवासी है। अंधेरा सदैव असत्यता और अज्ञानता को जन्म देता है। यहां उल्लू मूर्ख इंसान का प्रतीक है। उल्लू पर सवार लक्ष्मी अत्यंत चंचल मानी गई है। चंचल यानि कि जो एक जगह स्थिह ना रहे। मतलब यह हुआ कि, उल्लू जैसे अज्ञानी व्यक्ति के पास यदि किसी तरह की किस्मत या संयोग से लक्ष्मी आ भी गई तो वह टिकेगी नहीं। वह जैसे अचानक आई है वैसे ही चली भी जाएगी।

विष्णु प्रिया लक्ष्मी-जबकि मेहनती, ईमानदार और सच्चा इंसान वो समझदारी प्राप्त कर लेता है, जिससे देवी लक्ष्मी उसको छोड़कर नहीं जाती। ज्ञानी के पास जो लक्ष्मी आती है वह उल्लू पर सवार होकर नहीं बल्कि भगवान विष्णु के साथ गरुड़ पर सवार होकर आती है। जहां सत्य और ज्ञान है वहां विष्णु है, जहां विष्णु हैं वहां उनकी चिरप्रिया लक्ष्मी स्थाई निवास करती है।

रविवार, 3 जुलाई 2011

उजळी और जेठवै की प्रेम कहानी और उजळी द्वारा बनाये विरह के दोहे

उजळी और जेठवै की प्रेम कहानी और उजळी द्वारा बनाये विरह के दोहे

करीब ११ वीं-१२ वीं शताब्दी में हालामण रियासत की धूमली नामक नगरी का राजा भाण जेठवा था | उसके राज्य में एक अमरा नाम का गरीब चारण निवास करता था | अमरा के एक २० वर्षीय उजळी नाम की अविवाहित कन्या थी | उस ज़माने में लड़कियों की कम उम्र में ही शादी करदी जाती थी पर किसी कारण वश उजळी २० वर्ष की आयु तक कुंवारी ही थी |

अकस्मात एक दिन उसका राजा भाण जेठवा के पुत्र मेहा जेठवा से सामना हुआ और पहली मुलाकात में ही दोनों के बीच प्रेम सम्बन्ध स्थापित हो गए जो दिनों दिन दृढ होते गए | दोनों के विवाह की वार्ता चलने पर मेहा जेठवा ने उजळी से शादी करने के लिए यह कह कर मना कर दिया कि चारण व राजपूत जाति में भाई- भाई का सम्बन्ध होता है इसलिए वह उजळी से विवाह कर उस मर्यादा को नहीं तोड़ सकता | हालाँकि उजळी के पिता आदि सभी ने शादी के सहमती दे दी थी | पर जेठवा के हृदय में मर्यादा प्रेम से बढ़ी हुई थी इसलिए उसे कोई नहीं डिगा सका , पर जेठवा के इस निर्णय से उजळी का जीवन तो शून्य हो गया था |

कुछ दिनों के बाद मेहा जेठवा की किसी कारण वश मृत्यु हो गई तो उजळी की रही सही आशा का भी अंत हो गया | उजळी ने अपने हृदय में प्रेम की उस विकल अग्नि को दबा तो लिया पर वह दबी हुई अग्नि उसकी जबान से सोरठो (दोहों) के रूप में प्रस्फुटित हुई | उजळी ने अपने पुरे जीवन में जेठवा के प्रति प्रेम व उसके विरह को सोरठे बनाकर अभिव्यक्त किया | इस सोरठों में उजळी के विकल प्रेम, विरह और करुणोत्पादक जीवन की हृदय स्पर्शी आहें छिपी है |
मेहा जेठवै की मृत्य के बाद अकेली विरह की अग्नि में तप्ति उजळी ने उसकी याद में जो सोरठे बनाये उन्हें हम
मरसिया यानी पीछोले भी कह सकते है |

उदहारण व आपके रसास्वाद हेतु कुछ उजळी के बनाये कुछ पीछोले (दोहे) यहाँ प्रस्तुत है | इन दोहों का हिंदी अनुवाद व उन पर टिका टिप्पणी
स्व.तनसिंहजी द्वारा किया गया है -

जेठ घड़ी न जाय, (म्हारो) जमारो कोंकर जावसी |
(मों) बिलखतड़ी वीहाय, (तूं) जोगण करग्यो जेठवा ||


जिसके बिना एक प्रहर भी नहीं बीतता उसी के बिना मेरा जीवन कैसे बीतेगा | मुझ बिलखती हुई अबला को छोड़कर हे जेठवा तू मुझे योगिन बना गया |

"जोगण करग्यो" में एक उलाहना भरी हृदय की मौन चीत्कार छिपी है | अब मेरा जीवन कैसे चलेगा | यह प्रश्न क्या दुखी हृदय में नहीं उठता ? अपनी अमूल्य निधि को खोकर "बिलखतड़ी वीहाय " कहकर इस बेबसी भरे हाहाकार को "जोगण करग्यो" कहकर धीरे से निकाल देती है |


टोळी सूं टळतांह हिरणां मन माठा हुवै |
बालम बीछ्ड़तांह , जीवै किण विध जेठवा ||

टोली के बिछुड़े हुए हिरणों के मन भी उन्मत हो जाते है फिर प्रियतम के बिछुड़ने पर प्रियतमा किस प्रकार जीवित रह सकती है |

प्रिय वस्तु का नाश संसार से विरक्ति का उत्पादन करता है | उस वस्तु बिना जीवन के सब सुख फीखे लगते है | विशेषतः हिन्दू नारी के लिए पति से बढ़कर जीवन में कोई भी प्रिय वस्तु नहीं , और जब पति की मृत्यु हो जाति है तो नारी भी "जीवै किण विध जेठवा" कहने के अलावा और कह ही क्या सकती है ? जब हिरन जैसे पशु भी विरह की घड़ी आते देख उन्मत हो जाते है फिर कोमल भावनाओं वाली नारी पति बिना किस प्रकार जीवित रह सकती है ?


जेठा थारै लार ,(म्हे) धोला वस्तर पैरिया |
(ली) माला चनणरी हाथ, जपती फिरूं रे जेठवा ||


हे जेठवा तेरे पीछे (मृत्यु के बाद) मैंने श्वेत वस्त्र धारण कर लिए है और चन्दन की माला हाथ में लेकर मैं जप करती फिरती हूँ |

पति के मरने पर रंग बिरंगे और श्रंगार की अपेक्षा हिन्दू नारी को "(ली) माला चनणरी हाथ,जपती फिरूं रे जेठवा " ही कहना इष्ट है | पति से त्यक्त अभागिनी उजळी के हृदय के करुण रुदन की दुखद हूक इस सोरठे में अदभुत रूप से व्यक्त है |


जग में जोड़ी दोय, चकवै नै सारस तणी |
तीजी मिळी न कोय, जोती हारी जेठवा ||

संसार में दो ही जोड़ी है - चकवे व सारस की | लेकिन हे जेठवा ! मैं खोज खोज कर हारी तो भी तीसरी जोड़ी न मिली |

उजळी को विश्वास था कि चकवे व सारस के बाद जेठवा व मेरी जोड़ी तीसरी जोड़ी है लेकिन उस जोड़ी के टूटने पर और जोड़ी कहाँ प्राप्त हो सकती है |


चकवा सारस वाण, नारी नेह तीनूं निरख |
जीणों मुसकल जाण, जोड़ो बिछड़ यां जेठवा ||

चकवे को, सारस के क्रन्दन को और नारी के नेह को, इन तीनों को देखकर यही प्रमाणित होता है कि जोड़ी के बिछुड़ने पर जीना कठिन है |

मृत्यु को प्राप्त हुए प्रेमी के लिए जीवित प्रेमी का सबसे बड़ा बल अपनी ही मृत्यु है | यहाँ तक कि साधारण दुःख की अवस्था में भी मनुष्य आत्महत्या के लिए प्रस्तुत हो जाते है | विशेषतः एक हिन्दू नारी का विधवा होना उसके जीवन का सबसे बड़ा दुखप्रद क्षण है | उस क्षण में यदि उजळी जैसी भावुक प्रेमिका जेठवा जैसे प्रेमी के लिए "जीणों मुसकल जाण" कह दे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं अपितु यथार्थता की चरम सीमा है | जीवन की अनुभूति पर करुणा का आवरण चढ़ाकर उजळी ने अपने दुखी जीवन का कितना मर्मस्पर्शी चित्र खिंचा है |

उजळी द्वारा अपने प्रेमी जेठवा की मृत्यु उपरांत बनाये पिछोले -

पाबासर पैसेह हंसा भेला नी हुआ |
बुगलां संग बैसेह , जूण गमाई जेठवा ||


संसार रूपी मान सरोवर में रहकर जेठवा रूपी हंसों का संसर्ग प्राप्त न हुआ और बगुलों (निकृष्ट प्रेमियों) के संग रहकर अपना जीवन नष्ट कर दिया |

जेठवै के बिना उजळी का संसार शून्य है | वहां के लोग उजळी को बगुले लगते है | सत्य भी तो है कि गरीब का आश्रय कुटिया है | उसके लिए गमनस्पर्शी राजप्रशाद और रम्य आश्रम पशुओं के निवास स्थान है | उसका उनसे कोई प्रयोजन भी तो नहीं |


वै दीसै असवार घुड़लां री घूमर कियां |
अबला रो आधार, जको न दीसै जेठवो ||


घोड़ों को घुमाते हुए कई अश्व सवार दिखते है लेकिन मुझ अबला का आधार जेठवा नहीं दिखाई देता |

जिनका हृदय टूट जाता है उनके लिए संसार आबाद होते हुए भी शून्य है | यों तो घोड़ों के सवार बहुत मिलेंगे लेकिन अबला उजळी का आधार अब नहीं आने का | किसी प्रिय की मृत्यु पर हमारे हृदय में जो वैराग्यपपूर्ण निराशा आती है उसे उजळी ने ' जको न दीसै' जैसे मृदुल लेकिन तीक्षण शब्दों में प्रकट किया है |


अंगूठे री आग लोभी लगवाड़े गयो |
सूनी सारी रात, जंप न पड़ी रे जेठवा ||


हे लोभी तूं अंगूठे की आग लगाकर चला गया | मैं रात भर रोई ,और हे जेठवा ! मुझे लेश मात्र भी नींद नहीं आई |

उजळी का संबोधन "लोभी" बहुत मौके का है | विशेषतः राजस्थानी तो लोभीड़े शब्द को बहुत मानते है | फिर ' लगवाड़े गयो में कितनी वेदना है | एक बेबस हृदय बिछुड़ते हुए के प्रति रोने के सिवाय और क्या कर सकता है ?


बहता जळ छोडेह, पुसली भर पियो नहीं |
नैनकड़े नाड़ेह, जीव न धापै जेठवा ||


चलते जळ को छोड़कर उससे चुल्लू भर भी पानी नहीं पिया ,अब इन छोटे-छोटे तालाबों से पिपासा नहीं बुझती |

उजळी अपने प्रियतम की महानता किस विशेषता से अभिव्यंजित करती है - जेठवा बहता हुआ पवित्र जल था और संसार के अन्य जन छोटे गड्ढे है - उजळी की इच्छा थी कि जेठवा रूपी बहते जल को प्राप्त करूँ,लेकिन बहने वाला जल जब बह गया तो अब गंदे जलाशयों का पानी किस भांति पी सकती थी | पाठक देखेंगे कि इस सोरठे में वाही भाव है जो सती सावित्री द्वारा नारद व उसके पिता के सत्यवान से दूसरा वर चुनों कहने पर प्रदर्शित किया गया था |


उजळी द्वारा अपने प्रेमी जेठवा के विरह में लिखे दोहे -

जळ पीधो जाडेह, पाबसर रै पावटे |
नैनकिये नाडेह, जीव न धापै जेठवा ||


मानसरोवर के कगारों पर रहकर निर्मल जल पिया था तो हे जेठवा अब छोटे छोटे जलाशयों के जल से तृप्ति नहीं होती |

उपर्युक्त दोहे का समानार्थी यह भी है | "पीधो" में बीते हुए सुखों की एक छाया है और "न धापै" में वर्तमान की करुणा उत्पादक अवस्था का चित्रण है | एक दोहे में भूतकाल की रंगरेलियां एवं वर्तमान की चीत्कारों का कैसा अपूर्व मिश्रण है ?


ईण्डा अनल तणाह, वन मालै मूकी गयो |
उर अर पांख विनाह, पाकै किण विध जेठवा ||

पक्षी अपने अंडे वन के किसी घोसले में छोड़कर चला गया है | ह्रदय और आँखों की गर्मी बिना वे अंडे किस प्रकार पाक सकते है ?

जेठवा प्रेम का अंकुर बोकर चला गया, वे अंकुर वांछित खाद्य व पानी बिना किस प्रकार फूल सकते है ? 'वन मालै मूकी गयो' में छिपी तड़फ पाठकों के हृदय को बेध डालती है |


जंजर जड़िया जाय, आधे जाये उर महें |
कूंची कौण कराँह, जड़िया जाते जेठवै ||

हृदय के अन्दर आगे जाकर जो जंजीरे कास दी गई है उनके जेठवा जाते समय ताले भी लगा गया अत: और किससे चाबी ला सकती हूँ ?

यह है उजळी के हृदय का हृदयविदारक हाहाकार ! सहृदय पाठक इसे पढ़कर उजळी के हृदय की थाह पा सकते है और साथ ही यह भी ज्ञात कर सकते है कि राजस्थानी लोक साहित्य भी कितना संपन्न है | संसार के श्रेष्ठ साहित्यों में ही एसा वर्णन प्राप्त हो सकता है अन्य जगह नहीं |


ताला सजड़ जड़ेह, कूंची ले कीनै गयो |
खुलसी तो आयेह (कै) जड़िया रहसी जेठवा ||

मजबूत ताले जड़कर उसकी चाबी लेकर तू कहाँ गया ? हे जेठवा ! यह ताले यदि खुलेंगे तो तेरे आने पर ही, नहीं तो यों ही बंद रहेंगे |

'कीनै गयो' में भावुक राजस्थानी हृदय की कितनी जिज्ञासापूर्ण तड़फ है | जानते हुए भी पूछ उठती है 'किधर गया' | 'कै जड़िया रहसी जेठवा' में दुखी हृदय का कितना दयनीय निश्चय है |


आवै और अनेक, जाँ पर मन जावै नहीं |
दीसै तों बिन जागां सूनी जेठवा ||

अन्य कई आते है लेकिन उन पर मन नहीं जाता | हे जेठवा ! तुझे न देखकर तेरी जगह शून्य लगती है |

राजस्थानी में एक कहावत है ' भाई री भीड़ भुआ सूं नी भागै" अर्थात भाई की कमी भुआ (फूफी) से पूरी नहीं होती | यही हल है जेठवे के चले जाने पर उजळी का | यों तो संसार में आवागमन का तंत्र बना रहेगा लेकिन उससे क्या ? जेठवे के सहृदय उजळी को कोई नहीं मिल सकेगा | प्रिय वास्तु बीते हुए क्षण की भांति जब हाथ से निकल जाती है तो पुनः प्राप्त नहीं होती | उजळी का हृदय भी कह उठता है - "दीसै तों बिन जागां सूनी जेठवा" | हृदय की शुन्यता का इस सोरठे में कितना यथार्थ शाब्दिक प्रतिबिम्ब प्रकट किया गया है |

समाप्त


राजस्थानी प्रेम कहानी : ढोला मारू

राजस्थान की लोक कथाओं में बहुत सी प्रेम कथाएँ प्रचलित है पर इन सबमे ढोला मारू प्रेम गाथा विशेष लोकप्रिय रही है इस गाथा की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आठवीं सदी की इस घटना का नायक ढोला राजस्थान में आज भी एक-प्रेमी नायक के रूप में स्मरण किया जाता है और प्रत्येक पति-पत्नी की सुन्दर जोड़ी को ढोला-मारू की उपमा दी जाती है | यही नहीं आज भी लोक गीतों में स्त्रियाँ अपने प्रियतम को ढोला के नाम से ही संबोधित करती है,ढोला शब्द पति शब्द का प्रयायवाची ही बन चूका है |राजस्थान की ग्रामीण स्त्रियाँ आज भी विभिन्न मौकों पर ढोला-मारू के गीत बड़े चाव से गाती है |
इस प्रेमाख्यान का नायक ढोला नरवर के राजा नल का पुत्र था जिसे इतिहास में ढोला व साल्हकुमार के नाम से जाना जाता है, ढोला का विवाह बालपने में जांगलू देश (बीकानेर) के पूंगल नामक ठिकाने के स्वामी पंवार राजा पिंगल की पुत्री मारवणी के साथ हुआ था | उस वक्त ढोला तीन वर्ष का मारवणी मात्र डेढ़ वर्ष की थी | इसीलिए शादी के बाद मारवणी को ढोला के साथ नरवर नहीं भेजा गया | बड़े होने पर ढोला की एक और शादी मालवणी के साथ हो गयी | बचपन में हुई शादी के बारे को ढोला भी लगभग भूल चूका था | उधर जब मारवणी प्रोढ़ हुई तो मां बाप ने उसे ले जाने के लिए ढोला को नरवर कई सन्देश भेजे | ढोला की दूसरी रानी मालवणी को ढोला की पहली शादी का पता चल गया था उसे यह भी पता चल गया था कि मारवणी जैसी बेहद खुबसूरत राजकुमारी कोई और नहीं सो उसने डाह व ईर्ष्या के चलते राजा पिंगल द्वारा भेजा कोई भी सन्देश ढोला तक पहुँचने ही नहीं दिया वह सन्देश वाहको को ढोला तक पहुँचने से पहले ही मरवा डालती थी |
उधर मारवणी के अंकुरित यौवन ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया | एक दिन उसे स्वप्न में अपने प्रियतम ढोला के दर्शन हुए उसके बाद तो वह ढोला के वियोग में जलती रही उसे न खाने में रूचि रही न किसी और कार्य में | उसकी हालत देख उसकी मां ने राजा पिंगल से ढोला को फिर से सन्देश भेजने का आग्रह किया, इस बार राजा पिंगल ने सोचा सन्देश वाहक को तो मालवणी मरवा डालती है इसीलिए इस बार क्यों न किसी चतुर ढोली को नरवर भेजा जाय जो गाने के बहाने ढोला तक सन्देश पहुंचा उसे मारवणी के साथ हुई उसकी शादी की याद दिला दे |
जब ढोली नरवर के लिए रवाना हो रहा था तब मारवणी ने उसे अपने पास बुलाकर मारू राग में दोहे बनाकर दिए और समझाया कि कैसे ढोला के सम्मुख जाकर गाकर सुनाना है | ढोली (गायक) ने मारवणी को वचन दिया कि वह जीता रहा तो ढोला को जरुर लेकर आएगा और मर गया तो वहीँ का होकर रह जायेगा |
चतुर ढोली याचक बनकर किसी तरह नरवर में ढोला के महल तक पहुँचने में कामयाब हो गया और रात होते ही उसने ऊँची आवाज में गाना शुरू किया | उस रात बादल छा रहे थे,अँधेरी रात में बिजलियाँ चमक रही थी ,झीणी-झीणी पड़ती वर्षा की फुहारों के शांत वातावरण में ढोली ने मल्हार राग में गाना शुरू किया ऐसे सुहाने मौसम में ढोली की मल्हार राग का मधुर संगीत ढोला के कानों में गूंजने लगा और ढोला फन उठाये नाग की भांति राग पर झुमने लगा तब ढोली ने साफ़ शब्दों में गाया -
" ढोला नरवर सेरियाँ,धण पूंगल गळीयांह |"
गीत में पूंगल व मारवणी का नाम सुनते ही ढोला चौंका और उसे बालपने में हुई शादी की याद ताजा हो आई | ढोली ने तो मल्हार व मारू राग में मारवणी के रूप का वर्णन ऐसे किया जैसे पुस्तक खोलकर सामने कर दी हो | उसे सुनकर ढोला तड़फ उठा |
दाढ़ी(ढोली) पूरी रात गाता रहा | सुबह ढोला ने उसे बुलाकर पूछा तो उसने पूंगल से लाया मारवणी का पूरा संदेशा सुनाते हुए बताया कि कैसे मारवणी उसके वियोग में जल रही है |
आखिर ढोला ने मारवणी को लाने हेतु पूंगल जाने का निश्चय किया पर मालवणी ने उसे रोक दिया ढोला ने कई बहाने बनाये पर मालवणी उसे किसी तरह रोक देती | पर एक दिन ढोला एक बहुत तेज चलने वाले ऊंट पर सवार होकर मारवणी को लेने चल ही दिया और पूंगल पहुँच गया | मारवणी ढोला से मिलकर ख़ुशी से झूम उठी | दोनों ने पूंगल में कई दिन बिताये और एक दिन ढोला ने मारूवणी को अपने साथ ऊंट पर बिठा नरवर जाने के लिए राजा पिंगल से विदा ली | कहते है रास्ते में रेगिस्तान में मारूवणी को सांप ने काट खाया पर शिव पार्वती ने आकर मारूवणी को जीवन दान दे दिया | आगे बढ़ने पर ढोला उमर-सुमरा के षड्यंत्र में फंस गया, उमर-सुमरा ढोला को घात से मार कर मारूवणी को हासिल करना चाहता था सो वह उसके रास्ते में जाजम बिछा महफ़िल जमाकर बैठ गया | ढोला जब उधर से गुजरा तो उमर ने उससे मनुहार की और ढोला को रोक लिया | ढोला ने मारूवणी को ऊंट पर बैठे रहने दिया और खुद उमर के साथ अमल की मनुहार लेने बैठ गया | दाढ़ी गा रहा था और ढोला उमर अफीम की मनुहार ले रहे थे , उमर सुमरा के षड्यंत्र का ज्ञान दाढ़ी (ढोली) की पत्नी को था वह भी पूंगल की बेटी थी सो उसने चुपके से इस षड्यंत्र के बारे में मारूवणी को बता दिया |
मारूवणी ने ऊंट के एड मारी,ऊंट भागने लगा तो उसे रोकने के लिए ढोला दौड़ा, पास आते ही मारूवणी ने कहा - धोखा है जल्दी ऊंट पर चढो और ढोला उछलकर ऊंट पर चढ़ा गया | उमर-सुमरा ने घोड़े पर बैठ पीछा किया पर ढोला का वह काला ऊंट उसके कहाँ हाथ लगने वाला था | ढोला मारूवणी को लेकर नरवर पहुँच गया और उमर-सुमरा हाथ मलता रह गया |
नरवर पहुंचकर चतुर ढोला, सौतिहा डाह की नोंक झोंक का समाधान भी करता है। मारुवणी व मालवणी के साथ आनंद से रहने लगा |
इसी ढोला का पुत्र लक्ष्मण हुआ,लक्ष्मण का भानु और भानु का पुत्र परम प्रतापी बज्र्दामा हुआ जिसने अपने वंश का खोया राज्य ग्वालियर पुन: जीतकर कछवाह राज्यलक्ष्मी का उद्धार किया | आगे चलकर इसी वंश का एक राजकुमार दुल्हेराय राजस्थान आया जिसने मांची,भांडारेज,खोह,झोटवाड़ा आदि के मीणों को मारकर अपना राज्य स्थापित किया उसके बाद उसके पुत्र काकिलदेव ने मीणों को परास्त कर आमेर पर अपना राज्य स्थापित किया जो देश की आजादी तक उसके वंशजों के पास रहा | यही नहीं इसके वंशजों में स्व.भैरोंसिंहजी शेखावत इस देश के उपराष्ट्रपति बने व इसी वंश के श्री देवीसिंह शेखावत की धर्म-पत्नी श्रीमती प्रतिभापाटिल आज इस देश की महामहिम राष्ट्रपति है |

ढोला को रिझाने के लिए दाढ़ी (ढोली) द्वारा गाये कुछ दोहे -
आखडिया डंबर भई,नयण गमाया रोय |
क्यूँ साजण परदेस में, रह्या बिंडाणा होय ||

आँखे लाल हो गयी है , रो रो कर नयन गँवा दिए है,साजन परदेस में क्यों पराया हो गया है |

दुज्जण बयण न सांभरी, मना न वीसारेह |
कूंझां लालबचाह ज्यूँ, खिण खिण चीतारेह ||

बुरे लोगों की बातों में आकर उसको (मारूवणी को) मन से मत निकालो | कुरजां पक्षी के लाल बच्चों की तरह वह क्षण क्षण आपको याद करती है | आंसुओं से भीगा चीर निचोड़ते निचोड़ते उसकी हथेलियों में छाले पड़ गए है |
जे थूं साहिबा न आवियो, साँवण पहली तीज |
बीजळ तणे झबूकडै, मूंध मरेसी खीज ||

यदि आप सावन की तीज के पहले नहीं गए तो वह मुग्धा बिजली की चमक देखते ही खीजकर मर जाएगी | आपकी मारूवण के रूप का बखान नहीं हो सकता | पूर्व जन्म के बहुत पुण्य करने वालों को ही ऐसी स्त्री मिलती है |
नमणी, ख़मणी, बहुगुणी, सुकोमळी सुकच्छ |
गोरी गंगा नीर ज्यूँ , मन गरवी तन अच्छ ||

बहुत से गुणों वाली,क्षमशील,नम्र व कोमल है , गंगा के पानी जैसी गौरी है ,उसका मन और तन श्रेष्ठ है |
गति गयंद,जंघ केळ ग्रभ, केहर जिमी कटि लंक |
हीर डसण विप्रभ अधर, मरवण भ्रकुटी मयंक ||

हाथी जैसी चाल, हीरों जैसे दांत,मूंग सरीखे होठ है | आपकी मारवणी की सिंहों जैसी कमर है ,चंद्रमा जैसी भोएं है |
आदीता हूँ ऊजलो , मारूणी मुख ब्रण |
झीणां कपड़ा पैरणां, ज्यों झांकीई सोब्रण ||

मारवणी का मुंह सूर्य से भी उजला है ,झीणे कपड़ों में से शरीर यों चमकता है मानो स्वर्ण झाँक रहा हो |

वीर राव अमरसिंह राठौड़ और बल्लू चाम्पावत

'राजस्थान की इस धरती पर वीर तो अनेक हुये है - प्रथ्वीराज,महाराणा सांगा,महाराणा प्रताप,दुर्गादास राठौड़, जयमल मेडतिया आदि पर अमर सिंह राठौड़ की वीरता एक विशिष्ट थी,उसमे शोर्य,पराक्रम की पराकाष्ठा के साथ रोमांच के तत्व विधमान थे | उसने अपनी आन-बान के लिए ३१ वर्ष की आयु में ही अपनी इहलीला समाप्त कर ली | आत्म-सम्मान की रक्षार्थ मरने की इस घटना को जन-जन का समर्थन मिला | सभी ने अमर सिंह के शोर्य की सराहना की | साहित्यकारों को एक खजाना मिल गया | रचनाधारियों के अलावा कलाकारों ने एक ओर जहाँ कटपुतली का मंचन कर अमर सिंह की जीवन गाथा को जन-जन प्रदर्शित करने का उलेखनीय कार्य किया,वहीं दूसरी ओर ख्याल खेलने वालों ने अमर सिंह के जीवन-मूल्यों का अभिनय बड़ी खूबी से किया |रचनाधर्मियों और कलाकारों के संयुक्त प्रयासों से अमरसिंह जन-जन का हृदय सम्राट बन गया |"
- डा.हुकमसिंह भाटी, वीर शिरोमणि अमरसिंह राठौड़, पृ. १०

अमर सिंह राठौड़ की वीरता सर्वविदित है ये जोधपुर के महाराजा गज सिंह के जेष्ठ पुत्र थे जिनका जन्म रानी मनसुख दे की कोख से वि.स.१६७० , १२ दिसम्बर १९१६ को हुआ था | अमर सिंह बचपन से ही बड़े उद्दंड,चंचल,उग्रस्वभाव व अभिमानी थे जिस कारण महाराजा ने इन्हे देश निकाला की आज्ञा दे जोधपुर राज्य के उत्तराधिकार से वंचित कर दिया | उनकी शिक्षा राजसी वातावरण में होने के फलस्वरूप उनमे उच्चस्तरीय खानदान के सारे गुण विद्यमान थे और उनकी वीरता की कीर्ति चारों और फ़ैल चुकी थी | १९ वर्ष की आयु में ही वे राजस्थान के कई रजा-महाराजाओं की पुत्रियों के साथ विवाह बंधन में बाँध चुके थे |
लाहोर में रहते हुए उनके पिता महाराजा गज सिंह जी ने अमर सिंह को शाही सेना में प्रविष्ट होने के लिए अपने पास बुला लिया अतः वे अपने वीर साथियों के साथ सेना सुसज्जित कर लाहोर पहुंचे | बादशाह शाहजहाँ ने अमर सिंह को ढाई हजारी जात व डेढ़ हजार सवार का मनसब प्रदान किया | अमर सिंह ने शाजहाँ के खिलाफ कई उपद्रवों का सफलता पूर्वक दमन कर कई युधों के अलावा कंधार के सैनिक अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई | बादशाह शाहजहाँ अमर सिंह की वीरता से बेहद प्रभावित था |
६ मई १९३८ को अमर सिंह के पिता महाराजा गज सिंह का निधन हो गया उनकी इच्छानुसार उनके छोटे पुत्र जसवंत सिंह को को जोधपुर राज्य की गद्दी पर बैठाया गया | वहीं अमर सिंह को शाहजहाँ ने राव का खिताब देकर नागौर परगने का राज्य प्रदान किया |
हाथी की चराई पर बादशाह की और से कर लगता था जो अमर सिंह ने देने से साफ मना कर दिया था | सलावतखां द्वारा जब इसका तकाजा किया गया और इसी सिलसिले में सलावतखां ने अमर सिंह को कुछ उपशब्द बोलने पर स्वाभिमानी अमर सिंह ने बादशाह शाहजहाँ के सामने ही सलावतखां का वध कर दिया और ख़ुद भी मुग़ल सैनिकों के हाथो लड़ता हुआ आगरे के किले में मारा गया | राव अमर सिंह राठौड़ का पार्थिव शव लाने के उद्येश्य से उनका सहयोगी बल्लू चांपावत ने बादशाह से मिलने की इच्छा प्रकट की,कूटनितिग्य बादशाह ने मिलने की अनुमति दे दी,आगरा किले के दरवाजे एक-एक कर खुले और बल्लू चांपावत के प्रवेश के बाद पुनः बंद होते गए | अन्तिम दरवाजे पर स्वयम बादशाह बल्लू के सामने आया और आदर सत्कार पूर्वक बल्लू से मिला | बल्लू चांपावत ने बादशाह से कहा " बादशाह सलामत जो होना था वो हो गया मै तो अपने स्वामी के अन्तिम दर्शन मात्र कर लेना चाहता हूँ और बादशाह में उसे अनुमति दे दी | इधर राव अमर सिंह के पार्थिव शव को खुले प्रांगण में एक लकड़ी के तख्त पर सैनिक सम्मान के साथ रखकर मुग़ल सैनिक करीब २०-२५ गज की दुरी पर शस्त्र झुकाए खड़े थे | दुर्ग की ऊँची बुर्ज पर शोक सूचक शहनाई बज रही थी | बल्लू चांपावत शोक पूर्ण मुद्रा में धीरे से झुका और पलक झपकते ही अमर सिंह के शव को उठा कर घोडे पर सवार हो ऐड लगा दी और दुर्ग के पट्ठे पर जा चढा और दुसरे क्षण वहां से निचे की और छलांग मार गया मुग़ल सैनिक ये सब देख भौचंके रह गए |दुर्ग के बाहर प्रतीक्षा में खड़ी ५०० राजपूत योद्धाओं की टुकडी को अमर सिंह का पार्थिव शव सोंप कर बल्लू दुसरे घोडे पर सवार हो दुर्ग के मुख्य द्वार की तरफ रवाना हुआ जहाँ से मुग़ल अस्वारोही अमर सिंह का शव पुनः छिनने के लिए दुर्ग से निकलने वाले थे,बल्लू मुग़ल सैनिकों को रोकने हेतु उनसे बड़ी वीरता के साथ युद्ध करता हुआ मारा गया लेकिन वो मुग़ल सैनिको को रोकने में सफल रहा |

जिन्दा भूत

                                      जिन्दाभूत                                                                 जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह राजस्थान के इतिहास के प्रसिद्ध व्यक्ति रहे है | वे शाहजहाँ व औरंगजेब के ज़माने में देश की राजनीती में बहुत प्रभावशाली व्यक्ति थे | उन्होंने काबुल व दक्षिण में कई सैन्य अभियान चलाये | यही नहीं एक बार युद्ध से विमुख होने पर उन्हें अपनी रानी से भी बहुत खरी खोटी सुननी पड़ी थी उस समय रानी ने उनके लिए किले के दरवाजे बंद करवा दिए थे |हालाँकि वे औरंगजेब के अधीन थे और औरंगजेब के लिए ही काबुल में वे तैनात रहे पर औरंगजेब उनसे हमेशा डरता रहा,यही वजह थी कि वह उन्हें कूटनीति के चलते मारवाड़ से दूर काबुल या दक्षिण में रखता था |
भारतीय इतिहास का प्रसिद्ध वीर शिरोमणि दुर्गादास राठौड़ भी इन्ही महाराजा का सेनापति था | दुर्गादास के अलावा उनके सामंतों व सरदारों में एक और जोरदार सामंत थे आसोप के ठाकुर राजसिंह जी | वे आसोप के जागीरदार होने के साथ ही जोधपुर के प्रधान भी थे और मारवाड़ राज्य के सबसे ज्यादा प्रभावशाली सरदार थे | उस समय मारवाड़ के प्रधान पद के लिए उनसे उपयुक्त व्यक्ति कोई दूसरा हो ही नहीं सकता था | हालाँकि ठाकुर राजसिंह महाराजा जसवंतसिंह के प्रधान थे पर उनके राज्य में प्रभाव व उनकी मजबूत स्थिति होने के कारण महाराजा जसवंतसिंह हमेशा उनके प्रति सशंकित रहते थे | कारण था औरंगजेब की कूटनीति व कुटिल राजनीती |
औरंगजेब महाराजा जसवंतसिंह से मन ही मन बहुत जलता था और महाराजा के खिलाफ हमेशा षड्यंत्र रचता रहता था | अत: महाराजा को लगता था कि कहीं औरंगजेब ठाकुर राजसिंहजी को कभी अपनी कूटनीति का हिस्सा ना बना लें | इसलिए जसवंतसिंह जी ठाकुर राजसिंहजी को मरवाना चाहते थे | जब उन्हें कोई उपाय नहीं सुझा तो उन्होंने ठाकुर राजसिंह को जहर दे कर मरवाना चाहा | उस ज़माने में हुक्म के साथ किसी को भी जहर का प्याला भेज उसे पीने हेतु बाध्य करने का रिवाज चलन में था | परन्तु राजसिंह जी जैसे प्रभावशाली व वीर के साथ ऐसा करना महाराजा जसवंतसिंह जी के लिए बहुत कठिन था |
एक दिन पता चला महाराजा जसवंतसिंह पेट दर्द को लेकर बहुत तड़फ रहे है | कई वैद्यों ने उनका इलाज किया पर कोई कारगर नहीं | महाराजा की तड़फडाहट बढती जा रही थी | पुरे शहर में महाराजा की बीमारी के चर्चे शुरू हो गए कोई कहे जमरूद के थाने (काबुल) पर रात को गस्त करते हुए महाराजा का सामना भूतों से हुआ था और तब से भूत उनके पीछे पड़े है तो कोई कुछ कहे | पूरे शहर में जितने लोग,जितने मुंह उतनी बातें | सारे शहर में भय छा गया |
उधर महाराजा का इलाज करने वैध तरह तरह की जड़ी बूटियां घोटने में लगे, मन्त्र बोलने वाले मन्त्र बोले , झाड़ फूंक करने वाले झाड़ फूंक में लगे , टोटका करने वाले टोटके करने व्यस्त,प्रजा मंदिरों में बैठी अपने राजा के लिए भगवन से दुवाएं मांगे ,ब्राह्मण राजा की सलामती के लिए यज्ञ करने लगे तो कभी भूत उतारने कोई जती (तांत्रिक) आये तो कभी कोई जती आकर कोशिश करे पर सब बेकार | उधर महाराजा दर्द के मारे ऐसे तड़फ रहे जैसे कबूतर फडफडा रहा हो | सभी लोग दुखी |
आखिर खबर हुई कि एक बहुत बड़े जती आये है उन्होंने महाराजा की बीमारी की जाँच कर कहा -" महाराजा के पीछे बहुत शक्तिशाली प्रेत लगा है वह बिना भख (बलि) लिए नहीं जायेगा | महाराजा को ठीक करना है तो किसी दुसरे की बलि देनी होगी | मैं मन्त्र बोलकर जो पानी राजा के माथे से उतारूंगा उस पानी में राजाजी की पीड़ा आ जाएगी और वह पीड़ा उस पानी को पीने वाले पर चली जाएगी | "
इतना सुनते ही वहां उपस्थित कोई पच्चासों हाथ खड़े हो गए - " महाराजा की प्राण रक्षा के लिए हम अपनी बलि देंगे ,आप मन्त्र बोल पानी उतारिये उसे हम पियेंगे |"
जती हँसता हुआ बोला -" तुमसे काम नहीं चलेगा | महाराजा के बदले किसी महाराजा सरीखे व्यक्ति की बलि देनी होगी | शेर की जगह शेर ही चाहिए | छोटी मोटी बलि से ये प्रेत संतुष्ट होने वाला नहीं |"
" इस राज्य में महाराजा सरीखे तो ठाकुर राजसिंहजी ही है |" सोचती हुई भीड़ में से एक जने ने कहा | और सैंकड़ों आँखे राजसिंहजी की और ताकने लगी | इस समय मना करना कायरता और हरामखोरी का पक्का प्रमाण था , सो राजसिंहजी उठे और बोले -
"हाजिर हूँ ! जती जी महाराज आप अपने मन्त्र बोलकर अपना टोटका पूरा कीजिये |"
जती ने पानी भरा एक प्याला लेकर मन्त्र बुदबुदाते हुए उस प्याले को महाराजा के शरीर पर घुमाया और प्याला ठाकुर राजसिंह जी के हाथ में थमा दिया |
महाराजा से खम्मा (अभिवादन) कर ठाकुर राजसिंह बोले - " मैं जानता हूँ इसमें क्या है ! आपको इतना बड़ा नाटक रचने की क्या जरुरत थी ? ये प्याला आप वैसे ही भेज देते, मैं ख़ुशी ख़ुशी पी जाता | "
अपनी प्रधानगी का पट्टा महाराजा की और फैंक कर जहर का वह प्याला एक घूंट में पीते हुए राजसिंह जी ने बोलना जारी रखा -" ये प्रधानगी आपकी नजर है | आगे से मेरे खानदान में कोई आपका प्रधान नहीं बनेगा | मैंने तन मन से आपकी चाकरी की और उसका फल मुझे ये मिला |" और कहते कहते जहर के कारण राजसिंह जी की आँखे फिरने लगी वे जमीन पर गिर गए | उन्हें तुरंत उनकी हवेली लाया गया | सारे शहर में बात आग की तरह फ़ैल गयी -
" आसोप ठाकुर साहब राजसिंहजी का प्रेत ने भख ले लिया,और राजाजी उठ बैठे हुए |"
और उसके बाद राजसिंहजी की प्रेत योनी में जाकर भूत बनने की बातें पूरे शहर में फ़ैल गयी | जितने लोग उतनी कहानियां | कोई उनके द्वारा परचा देने की कहानी सुनाता,कोई हवेली में अब भी उनकी आवाज आने की कहानी कहता, कोई उनके द्वारा हवेली में हुक्का गड्गुड़ाने की आवाज सुनने के बारे में बाते बताता,कई लोगों को राजसिंह का प्रेत हवेली खिडकियों से इधर उधर घूमता नजर आये, किसी को उनका प्रेत डराए तो किसी को बख्शीस भी दे दे | जितने लोग उतनी बाते, राजसिंह जी की प्रेत योनी की उतनी ही बाते |
पर दरअसल ठाकुर राजसिंहजी मरे नहीं वे जहर को पचा गए |
उसके बाद उनको आसोप हवेली के एक महल में महाराजा ने नजर बंद करवा दिया | इस घटना के बाद वे सात वर्ष तक जिन्दा रहे | इसीलिए कभी हवेली में वे लोगो को हुक्का गुडगुडाते नजर आ जाते तो कभी महल से उनके खंखारे सुनाई दे जाते | कभी कभी महल की उपरी मंजिल में घूमते हुए वे लोगों को किसी खिड़की से नजर आ जाते और उनको देखने वाले लोग डर के मारे उनसे मन्नते मांगते,चढ़ावा चढाते |
इस तरह महाराजा जसवंतसिंह जी ने ऐसा नाटक रचा कि ठाकुर राजसिंहजी को जिन्दा रहते ही भूत बना दिया | महाराजा ने लोगों के मन ऐसा विश्वास पैदा कर दिया कि अभी तक आसोप हवेली के पड़ौसी लोग राजसिंहजी के प्रेत को देखने की बाते यदा कदा करते रहते है |

क्रांतिवीर : बलजी-भूरजी

राजस्थान में शेखावाटी राज्य की जागीर बठोठ-पटोदा के ठाकुर बलजी शेखावत दिनभर अपनी जागीर के कार्य निपटाते,लगान की वसूली करते,लोगों के झगड़े निपटाकर न्याय करते,किसी गरीब की जरुरत के हिसाब से आर्थिक सहायता करते हुए अपने बठोठ के किले में शान से रहते ,पर रात को सोते हुए उन्हें नींद नहीं आती,बिस्तर पर पड़े पड़े वे फिरंगियों के बारे में सोचते कि कैसे वे व्यापार करने के बहाने यहाँ आये और पुरे देश को उन्होंने गुलाम बना डाला | ज्यादा दुःख तो उन्हें इस बात का होता कि जिन गरीब किसानों से वे लगान की रकम वसूल कर सीकर के राजा को भेजते है उसका थोड़ा हिस्सा अंग्रेजों के खजाने में भी जाता | रह रह कर उन्हें फिरंगियों पर गुस्सा आता और साथ में उन राजाओं पर भी जिन्होंने अंग्रेजों की दासता स्वीकार करली थी | पर वे अपना दुःख किसे सुनाये,अकेले अंग्रेजों का मुकाबला भी कैसे करें सभी राजा तो अंग्रेजों की गोद में जा बैठे थे | उन्हें अपने पूर्वज डूंगरसीं व जवाहरसीं की याद भी आती जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष छेड़ा था और जोधपुर के राजा ने उन्हें विश्वासघात से पकड़ कर अंग्रेजों के हवाले कर दिया था,अपने पूर्वज डूंगरसीं के साथ जोधपुर महाराजा द्वारा किये गए विश्वासघात की बात याद आते ही उनका खून खोल उठता था वे सोचते कि कैसे जोधपुर रियासत से उस बात का बदला लिया जाय |
आज भी बलजी को नींद नहीं आ रही थी वे आधी रात तक इन्ही फिरंगियों व राजस्थान के सेठ साहूकारों द्वारा गरीबों से सूद वसूली पर सोचते हुए चिंतित थे तभी उन्हें अपने छोटे भाई भूरजी की आवाज सुनाई दी |
भूरजी अति साहसी व तेज मिजाज रोबीले व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति थे उनके रोबीले व्यक्तित्व को देखकर अंग्रेजों ने भारतीय सेना की आउट आर्म्स राइफल्स में उन्हें सीधे सूबेदार के पद पर भर्ती कर लिया था| एक अच्छे निशानेबाज व बुलंद हौसले वाले फौजी होने के साथ भूरजी में स्वाभिमान कूट कूटकर भरा था | अंग्रेज अफसर अक्सर भारतीय सैनिकों के साथ दुर्व्यवहार करते थे ये भेदभाव भूरजी को बर्दास्त नहीं होता था सो एक दिन वे इसी तरह के विवाद पर एक अंग्रेज अफसर की हत्या कर सेना से फरार हो गए | सभी राज्यों की पुलिस भूरजी को गिरफ्तार करने हेतु उनके पीछे पड़ी हुई थी और वे बचते बचते इधर उधर भाग रहे थे |
आज आधी रात में बलजी को उनकी (भूरजी) आवाज सुनाई दी तो वे चौंके,तुरंत दरवाजा खोल भूरजी को किले के अन्दर ले गले लगाया,दोनों भाइयों ने कुछ क्षण आपसी विचार विमर्श किया और तुरंत ऊँटों पर सवार हो अपने हथियार ले बागी जिन्दगी जीने के लिए किले से बाहर निकल गए उनके साथ बलजी का वफादार नौकर गणेश नाई भी साथ हो लिया |
अब दोनों भाई जोधपुर व अन्य अंग्रेज शासित राज्यों में डाके डालने लगे ,जोधपुर रियासत में तो डाके डालने की श्रंखला ही बना डाली | जोधपुर रियासत के प्रति उनके मन में पहले से ही काफी विरोध था |धनी व्यक्ति व सेठ साहूकारों को लुट लेते और लुटा हुआ धन शेखावाटी में लाकर जरुरत मंदों के बीच बाँट देते |
लूटे गए धन से किसी गरीब की बेटी की शादी करवाते तो किसी गरीब बहन के भाई बनकर उसके बच्चों की शादी में भात भरने जाते | हर जरुरत मंद की वे सहायता करते जोधपुर,आगरा, बीकानेर,मालवा,अजमेर,पटियाला,जयपुर रियासतों में उनके नाम से धनी व सेठ साहूकार कांपने लग गए थे | साहूकारों के यहाँ डाके डालते वक्त सबसे पहले बलजी-भूरजी उनकी बहियाँ जला डालते थे ताकि वे गरीबों को दिए कर्ज का तकादा नहीं कर सके |
गरीब,जरुरत मंद व असहाय लोगों की मदद करने के चलते स्थानीय जनता ने उन्हें मान सम्मान दिया और बलसिंह -भूरसिंह के स्थान पर लोग उन्हें बाबा बलजी-भूरजी कहने लगे | और यही कारण था कि पुरे राजस्थान की पुलिस उनके पीछे होने के बावजूद वे शेखावाटी में स्वछन्द एक स्थान से दुसरे स्थान पर घूमते रहे | लोग उनके दल को अपने घरों में आश्रय देते,खाना खिलाते ,उनका सम्मान करते | वे भी जो रुखी सुखी रोटी मिल जाती खाकर अपना पेट भर लेते कभी किसी गांव में तो कभी रेत के टीलों पर सो कर रात गुजार देते |गांव के लोगों से जब भी वे मिलते ग्रामीणों को फिरंगियों के मंसूबों से अवगत कराते,राजाओं की कमजोरी के बारे में उन्हें सचेत करते,कैसे सेठ साहूकार गरीबों का शोषण करते है के बारे में बताते |
कई लोग उनके नाम से भी वारदात करने लगे ,पता चलने पर बलजी-भूरजी उन्हें पकड़कर दंड देते और आगे से हिदायत भी देते कि उनके नाम से कभी किसी ने किसी गरीब को लुटा या सताया तो उसकी खैर नहीं होगी | उनके दल में काफी लोग शामिल हो गए थे पर जो लोग उनके दल के लिए बनाये कठोर नियमों का पालन नहीं करते बलजी उन्हें निकाल देते थे | उनके नियम थे -किसी गरीब को नहीं सताना,किसी औरत पर कुदृष्टि नहीं डालना,डाका डालते वक्त भी उस घर की औरतों को पूरा सम्मान देना आदि व डाके में मिला धन गरीबों व जरुरत मंदों के बीच बाँट देना |
20 वर्ष तक इन बागियों को रियासतों की पुलिस द्वारा नहीं पकड़पाने के चलते अंग्रेज अधिकारी खासे नाराज थे और डीडवाना के पास मुटभेड में जोधपुर रियासत के इन्स्पेक्टर गुलाबसिंह की हत्या के बाद तो जोधपुर रियासत की पुलिस ने इन्हें पकड़ने का अभियान ही चला दिया | अंग्रेज अधिकारीयों ने जोधपुर पुलिस को सीकर व अन्य राज्यों की सीमाओं में घुसकर कार्यवाही करने की छुट दे दी |
जोधपुर रियासत ने बलजी-भूरजी को पकड़ने हेतु अपने एक जांबाज पुलिस अधिकारी पुलिस सुपरिडेंट बख्तावरसिंह के नेतृत्व में तीन सौ सिपाहियों का एक विशेष दल बनाया | बख्तावरसिंह ने अपने दल के कुछ सदस्यों को उन इलाकों में ग्रामीण वेशभूषा में तैनात किया जिन इलाकों में बलजी-भूरजी घुमा करते थे इस तरह उनका पीछा करते हुए बख्तावरसिंह को तीन साल लग गए,तीन साल बाद 29 अक्तूबर 1926 को कालूखां नामक एक मुखबिर ने बख्तावरसिंह को बलजी-भूरजी के रामगढ सेठान के पास बैरास गांव में होने की सुचना दी | कालूखां भी पहले बलजी-भूरजी के दल में था पर किसी विवाद के चलते वह उनका दल छोड़ गया था |
सुचना मिलते ही बख्तावरसिंह अपने हथियारों से सुसज्जित विशेष दल के तीन सौ सिपाहियों सहित ऊँटों व घोड़ों पर सवार हो बैरास गांव की और चल दिया | बख्तावरसिंह के आने की खबर ग्रामीणों से मिलते ही बलजी-भूरजी ने भी मौर्चा संभालने की तैयारी कर ली | उन्होंने बैरास गांव को छोड़ने का निश्चय किया क्योंकि बैरास गांव की भूमि कभी उनके पुरखों ने चारणों को दान में दी थी इसलिए वे दान में दी गयी भूमि पर रक्तपात करना उचित नहीं समझ रहे थे अत : वे बैरास गांव छोड़कर उसी दिशा में सहनुसर गांव की भूमि की और बढे जिधर से बख्तावर भी अपनी फ़ोर्स के साथ आ रहा था | रात्री का समय था बलजी-भूरजी ने एक बड़े रेतीले टीले पर मोर्चा जमा लिया उधर बख्तावर की फ़ोर्स ने भी उन्हें तीन और से घेर लिया | बलजी ने अपने सभी साथियों को जान बचाकर भाग जाने की छुट दे दी थी सो उनके दल के सभी सदस्य भाग चुके थे ,अब दोनों भाइयों के साथ सिर्फ उनका स्वामिभक्त नौकर गणेश ही शेष रह गया था |
30 अक्तूबर 1926 की सुबह चार बजे आसपास के गांव वालों को गोलियां चलने की आवाजें सुनाई दी | दोनों और से कड़ा मुकबला हुआ ,भूरजी ने बख्तावरसिंह के ऊंट को गोली मार दी जिससे बख्तावरसिंह पैदल हो गया और उसने एक पेड़ का सहारा ले भूरजी का मुकाबला किया ,उधर कुछ सिपाही टीले के पीछे पहुँच गए थे जिन्होंने पीछे से वार कर बलजी को गोलियों से छलनी कर दिया |
भूरजी के पास भी कारतूस ख़त्म हो चुके थे तभी गणेश रेंगता हुआ बलजी की मृत देह के पास गया और उनके पास रखी बन्दुक व कारतूस लेकर भूरजी की और बढ़ने लगा तभी उसको भी गोली लग गयी पर मरते मरते उसने हथियार भूरजी तक पहुंचा दिए | भूरजी ने कोई डेढ़ घंटे तक मुकाबला किया | बख्तावर सिंह की फ़ोर्स के कई सिपाहियों को उसने मौत के घाट उतार दिया और उसे कब गोली लगी और कब वह मृत्यु को प्राप्त हो गया किसी को पता ही नहीं चला ,जब भूरजी की और से गोलियां चलनी बंद हो गयी तब भी बख्तावरसिंह को भरोसा नहीं था कि भूरजी मारा गया है कई घंटो तक उसकी देह के पास जाने की किसी की हिम्मत तक नहीं हुई |
आखिर बख्तावर ने दूरबीन से देखकर भूरजी के मरने की पुष्टि की जब उनके शव के पास जाया गया |
बख्तावरसिंह ने बलजी-भूरजी के मारे जाने की खबर जोधपुर जयपुर तार द्वारा भेजी व लाशों को एक जगह रख वहीँ पहरे पर बैठ गया तीसरे दिन जोधपुर के आई.जी.पी.साहब आये उन्होंने लाशों की फोटो आदि खिंचवाई व उनके सिर काटकर जोधपुर ले जाने की तैयारी की पर वहां आस पास के ग्रामीण इकठ्ठा हो चुके थे पास ही के महनसर व बिसाऊ के जागीरदार भी पहुँच चुके थे उन्होंने मिलकर उनके सिर काटने का विरोध किया | आखिर जन समुदाय के आगे अंग्रेज समर्थित पुलिस को झुकना पड़ा और शव सौपने पड़े | जन श्रुतियों के अनुसार बख्तावरसिंह को बलजी-भूरजी के मारे जाने पर इतनी आत्म ग्लानी हुई कि उसने तीन दिन तक खाना तक नहीं खाया |
उनके दाह संस्कार के लिए सहनुसर गांव के ग्रामीण तीन पीपे घी के लाये,उसी गांव के गोमजी माली व मोहनजी सहारण (जाट) अपने खेतों से चिता के लिए लकड़ी लेकर आये और तीनों का उसी स्थान पर दाह संस्कार किया गया जहाँ वे शहीद हुए थे | उनकी चिता को मुखाग्नि बिसाऊ के जागीरदार ठाकुर बिशनसिंह जी ने दी | अस्थि संचय व बाकी के क्रियाक्रम उनके पुत्रों ने आकर किया | आस पास के गांव वालों ने उनके दाह संस्कार के स्थान पर ईंटों का कच्चा चबूतरा बनवा दिया | सीकर के राजा कल्याणसिंघजी ने बलजी-भूरजी के नाम पर दाह संस्कार स्थान की ४० बीघा भूमि गोचर के रूप में आवंटित की | जिसमे से ३० बीघा भूमि तो पंचायतों ने बाद में भूमिहीनों को आवंटित कर दी अब शेष बची १० बीघा भूमि को "बलजी-भूरजी स्मृति संस्थान" ने सुरक्षित रखने का जिम्मा अपने हाथ में ले लिया ये भूमि बलजी-भूरजी की बणी के रूप में जानी जाती है | कच्चे चबूतरे की जगह अब उनके स्मारक के रूप में छतरियां बना दी गयी है ,जहाँ उनकी पुण्य तिथि पर हजारों लोग उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करने इकट्ठा होते है |
जो बलजी-भूरजी अंग्रेज सरकार व जोधपुर रियासत के लिए सिरदर्द बने हुए थे मृत्यु के बाद लोग उन्हें भोमियाजी(लोकदेवता) मानकर उनकी पूजा करने लगे | आज भी आस-पास के लोग अपनी शादी के बाद गठ्जोड़े की जात देने उनके स्मारक पर शीश नवाते है,अपने बच्चों का जडुला (मुंडन संस्कार) चढाते है | रोगी अपने रोग ठीक होने के लिए मन्नत मांगते है तो कोई अपनी मन्नत पूरी होने पर वहां रतजगा करने आता है | भोपों ने उनकी वीरता के लिए गीत गाये तो कवियों ने उनकी वीरता,साहस व जन कल्याण के कार्यों पर कविताएँ ,दोहे रचे |
जोधपुर रियासत में उनके द्वारा डाले गए धाड़ों पर एक कवि ने यूँ कहा -
बीस बरस धाड़न में बीती ,
मारवाड़ नै करदी रीति |

राजाओं द्वारा अंग्रेजों की दासता स्वीकार करने से दुखी बलजी अपने भाव इस प्रकार व्यक्त किया करते -
रजपूती डूबी जणां, आयो राज फिरंग |
रजवाड़ा भिसळया अठै ,चढ्यो गुलामी रंग |

राजपूतों के रजपूती गुण खोने (डूबने) के कारण ही ये फिरंगी राज पनपा है | राजपुताना के रजवाड़ों ने अपना कर्तव्य मार्ग खो दिया है और उनके ऊपर गुलामी का रंग चढ़ गया है |
रजपूती ढीली हुयां,बिगडया सारा खेल |
आजादी नै कायरां,दई अडानै मेल ||

राजपूतों में रजपूती गुणों की कमी के चलते ही सारा खेल बिगड़ गया है | कायरों ने आजादी को गिरवी रख दिया है |
डाकू या क्रांतिवीर :
बलजी-भूरजी को यधपि लोग "धाड़ायति" (डाकू) ही कहते आये है कारण अंग्रेजी राज में जिसने भी बगावत की उसे कानूनद्रोही या डाकू कह दिया गया | जबकि बलजी-भूरजी डाके में लुटी रकम गरीबों में बाँट दिया करते थे उन्हें तो सिर्फ अपने ऊँटो को घी पिलाने जितने ही रुपयों की जरुरत पड़ती थी |
बलजी बठोठ-पटोदा के जागीरदार थे, बठोठ में उनका अपना गढ़ था ,उनके आय की कोई कमी नहीं थी वे अपनी जागीर से होने वाली आय से अपना गुजर बसर आसानी से कर सकते थे और कर भी रहे थे ,जबकि बागी जीवन में उन्हें अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ता था उनका जीवन दुरूह हो गया था ,उन्हें अक्सर रेगिस्तान के गर्म रेत के टीलों के बीच पेड़ों की छाँव में जिन्दगी बितानी पड़ती थी ,खाना भी जब जैसा मिल गया खाना होता था | महलों में सोने वाले बलजी को बिना बिछोने के रेत के टीलों पर रातें गुजारने पड़ती थी | इसलिए आसानी से समझा जा सकता था कि बागी बनकर डाके डालकर धन कमाने का उनका कोई उदेश्य नहीं था |
भूरजी भी भारतीय सेना में सीधे सूबेदार के पद पर पहुँच गया था यदि उसके मन में भी अंग्रेजों के प्रति नफरत नहीं होती तो वो भी आसानी से सेना में तरक्की पाकर बागी जीवन जीने की अपेक्षा आसानी से अपना जीवन यापन कर सकता था पर दोनों भाइयों के मन में अंग्रेज सरकार के विरोध के अंकुर बचपन में ही प्रस्फुटित हो गए थे और उनकी परिणित हुई कि वे अपना विलासितापूर्ण जीवन छोड़कर बागी बन गए |

बेशक जोधपुर स्टेट में उन्हें कानूनद्रोही माना पर शेखावाटी व उन स्थानों की जनता ने जिनके बीच वे गए क्रांतिवीर व जन-हितेषी ही माना |