बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

खांडा विवाह परम्परा (तलवार के साथ विवाह)

खांडा विवाह परम्परा (तलवार के साथ विवाह)

Mera Rajasthan

राजस्थान के राजपूत शासन काल में राजपूत हमेशा युद्धरत रहते थे कभी बाहरी आक्रमण तो कभी अपना अपना राज्य बढ़ाने के लिए राजाओं की आपसी लड़ाईयां|इन लड़ाइयों के चलते राजपूत योद्धाओं को कभी कभी अपनी शादी तक के लिए समय तक नहीं मिल पाता था|कई बार ऐसे भी अवसर आते थे कि शादी की रस्म को बीच में ही छोड़कर राजपूत योद्धाओं को युद्ध में जाना पड़ता था|

राजस्थान के प्रसिद्ध लोक देवता पाबूजी राठौड अपनी शादी में फेरों की रस्म पूरी ही नहीं कर पाए थे कि एक वृद्धा के पशुधन को लुटेरों से बचाने के लिए फेरों की रस्म बीच में ही छोड़ उन्हें रण में जाना पड़ा और वे उस वृद्धा के पशुधन की रक्षा करते हुए युद्धभूमि में शहीद हो गए|

इसी तरह मेवाड़ के सलूम्बर ठिकाने के रावत रत्नसिंह चुंडावत भी अपनी शादी के बाद ठीक से अपनी पत्नी रानी हाड़ी से मिल भी नहीं पाए कि उन्हें औरंगजेब के खिलाफ युद्ध में जाना पड़ गया और रानी ने ये सोच कर कि कहीं उसके पति पत्नीमोह में युद्ध से विमुख न हो जाए या वीरता प्रदर्शित नही कर पाए इसी आशंका के चलते उस वीर रानी ने अपना शीश काट कर ही निशानी के तौर पर भेज दिया ताकि उसका पति अब उसका मोह त्याग निर्भय होकर अपनी मातृभूमि के लिए युद्ध कर सके | और रावत रतन सिंह चुण्डावत ने अपनी पत्नी का कटा शीश गले में लटका औरंगजेब की सेना के साथ भयंकर युद्ध किया और वीरता पूर्वक लड़ते हुए अपनी मातृभूमि के लिए शहीद हो गए|

इस तरह राजपूत योद्धाओं को अक्सर अनवरत चलने वाले युद्धों के कारण अपनी शादी के लिए जाने तक का समय नहीं मिल पाता था ऐसे कई अवसर आते थे कि किसी योद्धा की शादी तय हो जाती थी और ठीक शादी से पहले उसे किसी युद्ध में चले जाना पड़ता था ऐसी परिस्थितियों में उस काल में राजपूत समुदाय में खांडा विवाह परम्परा की शुरुआत हुई इस परम्परा के अनुसार दुल्हे के शादी के समय उपलब्ध नहीं होने की स्थिति में उसकी तलवार (खांडा) दुल्हे की जगह बारात के साथ भेज दी जाती थी और उसी तलवार को दुल्हे की जगह रखकर शादी के सभी रस्मों रिवाज पुरे कर दिए जाते थे|

पर अब राजपूत समुदाय में खांडा विवाह परम्परा बिल्कुल समाप्त हो चुकी है हाँ बचपन में मैंने खांडा विवाह तो नहीं पर कुछ सगाई समारोह जरुर देखें है जहाँ लड़का उस समय उपलब्ध नहीं था तो सगाई की रस्म तलवार रखकर पूरी कर दी गयी थी| मेरे एक चचेरे भाई की सगाई भी उसकी अनुपस्थिति में इसी तरह तलवार रखकर कर दी गयी थी अब भी हमारी भाभी और हमारे चचेरे भाई के बीच इस बात पर कई बार मजाक हो जाया करती है|

पर इस प्रथा को लेकर इतिहास में एक बार एक ऐसी दुखद घटना भी घट चुकी है जिसके चलते बाड़मेर की जनता को बहुत उत्पीडन सहना पड़ा| राजस्थान के प्रसिद्ध प्रथम इतिहासकार और तत्कालीन जोधपुर रियासत के प्रधान मुंहनोत नैंणसीं को तीसरे विवाह के लिए बाड़मेर राज्य के कामदार कमा ने अपनी पुत्री के विवाह का नारियल भेजा था (उस जमाने में सगाई के लिए नारियल भेजा जाता था जिसे स्वीकार कर लेते ही सगाई की रस्म पूरी हो जाया करती थी) पर जोधपुर राज्य के प्रशासनिक कार्यों में अत्यधिक व्यस्त होने के कारण नैंणसीं खुद विवाह के लिए नहीं जा पाए और प्रचलित परम्परा के अनुसार उन्होंने बारात के साथ अपनी तलवार भेजकर खांडा विवाह करने का निश्चय किया| पर दुल्हन के पिता कमा ने इसे अपमान समझा और अपनी कन्या को नहीं भेजा बल्कि कन्या के बदले मूसल भेज दिया जिससे जोधपुर का वह शक्तिशाली प्रशासक व सेनापति नैंणसीं अत्यधिक क्रोधित हुआ और उसने इसे अपना अपमान समझ उसका बदला लेने के लिए बाड़मेर पर ससैन्य चढाई कर आक्रमण कर दिया उसने पुरे बाड़मेर नगर को तहस नहस कर खूब लूटपाट की और नगर के मुख्य द्वार के दरवाजे वहां से हटाकर जालौर दुर्ग में लगवा दिए|इस प्रकार इस खांडा विवाह परम्परा के चलते बाड़मेर की तत्कालीन प्रजा को बहुत उत्पीडन सहना पड़ा|

चूँकि नैंणसीं राजपूत नहीं ओसवाल महाजन (जैन)था अत:उसके द्वारा खांडा विवाह के लिए तलवार भेजने की इस घटना से साफ जाहिर है कि ये परम्परा सिर्फ राजपूत जाति तक ही सिमित नहीं थी बल्कि राजस्थान में उस समय की अन्य जातियों में भी इस प्रथा का चलन था|

आचार्य चाणक्य के 15 सूक्ति वाक्य ----


1) "दूसरो की गलतियों से सीखो अपने ही ऊपर प्रयोग करके सीखने को तुम्हारी आयु कम पड़ेगी."

2)"किसी भी व्यक्ति को बहुत ईमानदार नहीं होना चाहिए ---सीधे वृक्ष और व्यक्ति पहले काटे जाते हैं."

3)"अगर कोई सर्प जहरीला नहीं है तब भी उसे जहरीला दिखना चाहिए वैसे दंश भले ही न दो पर दंश दे सकने की क्षमता का दूसरों को अहसास करवाते रहना चाहिए. "

4)"हर मित्रता के पीछे कोई स्वार्थ जरूर होता है --यह कडुआ सच है."

5)"कोई भी काम शुरू करने के पहले तीन सवाल अपने आपसे पूछो ---मैं ऐसा क्यों करने जा रहा हूँ ? इसका क्या परिणाम होगा ? क्या मैं सफल रहूँगा ?"

6)"भय को नजदीक न आने दो अगर यह नजदीक आये इस पर हमला करदो यानी भय से भागो मत इसका सामना करो ."

7)"दुनिया की सबसे बड़ी ताकत पुरुष का विवेक और महिला की सुन्दरता है."

8)"काम का निष्पादन करो , परिणाम से मत डरो."

9)"सुगंध का प्रसार हवा के रुख का मोहताज़ होता है पर अच्छाई सभी दिशाओं में फैलती है."

10)"ईश्वर चित्र में नहीं चरित्र में बसता है अपनी आत्मा को मंदिर बनाओ."

11) "व्यक्ति अपने आचरण से महान होता है जन्म से नहीं."

12) "ऐसे व्यक्ति जो आपके स्तर से ऊपर या नीचे के हैं उन्हें दोस्त न बनाओ,वह तुम्हारे कष्ट का कारण बनेगे. सामान स्तर के मित्र ही सुखदाई होते हैं ."

13) "अपने बच्चों को पहले पांच साल तक खूब प्यार करो. छः साल से पंद्रह साल तक कठोर अनुशासन और संस्कार दो .सोलह साल से उनके साथ मित्रवत व्यवहार करो.आपकी संतति ही आपकी सबसे अच्छी मित्र है."

14) "अज्ञानी के लिए किताबें और अंधे के लिए दर्पण एक सामान उपयोगी है ."

15) "शिक्षा सबसे अच्छी मित्र है. शिक्षित व्यक्ति सदैव सम्मान पाता है. शिक्षा की शक्ति के आगे युवा शक्ति और सौंदर्य दोनों ही कमजोर हैं .
 

भीष्म और द्रोण वध


भीष्म और द्रोण वध


बाणो की शय्या पर लेटे भीष्म
भीष्म ने दस दिनों तक युद्ध करके पाण्डवों की अधिकांश सेना को अपने बाणों से मार गिराया। भीष्म की मृत्यु उनकी इच्छा के अधीन थी। श्रीकृष्ण के सुझाव पर पाण्डवों ने भीष्म से ही उनकी मृत्यु का उपाय पूछा। भीष्म ने कहा कि पांडव शिखंडी को सामने करके युद्ध लड़े। भीष्म उसे कन्या ही मानते थे और उसे सामने पाकर वो शस्त्र नहीं चलाने वाले थे। १०वे दिन के युद्ध में अर्जुन ने शिखंडी को आगे अपने रथ पर बिठाया और शिखंडी को सामने देख कर भीष्म ने अपना धनुष त्याग दिया और अर्जुन ने अपनी बाणवृष्टि से उन्हें बाणों कि शय्या पर सुला दिया। तब आचार्य द्रोण ने सेनापतित्व का भार ग्रहण किया। फिर से दोनों पक्षो में बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। विराट और द्रुपद आदि राजा द्रोणरूपी समुद्र में डूब गये थे। लेकिन जब पाण्डवो ने छ्ल से द्रोण को यह विश्वास दिला दिया कि अश्वत्थामा मारा गया। तो आचार्य द्रोण ने निराश हों अस्त्र शस्त्र त्यागकर उसके बाद योग समाधि ले कर अपना शरीर त्याग दिया। ऐसे समय में धृष्टद्युम्न ने योग समाधि लिए द्रोण का मस्तक तलवार से काट कर भूमि पर गिरा दिया।
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शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

क्या रावण जगद्जननी मां जानकी का हरण कर सकता था???


क्या रावण जगद्जननी मां जानकी का हरण कर सकता था???
बहुत दिन से इस विषयपर लिखने का सोच रहा था, जिसकी कई वजहें थी कुछ मूर्खों और अधर्मियों द्वारा माता सीता के बारे में निंदनीय बात कहना तथा मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री राम के बारे में निराधार बातें कहना...
ये उन मूर्खों के लिए प्रत्युत्तर है.. जिन्होंने रामायण या रामचरित मानस का पठन तो क्या ढंग से रामायण सीरियल भी नहीं देखा और बातें ब्रहम की करते हैं... साथ ही अश्लील बातें करने वाले तथाकथित शांति के धर्म वालों के लिए भी सादर जानकारी है... जिनके लिए सो कॉल्ड खुदा की पुस्तक ही अंतिम सत्य है, बाकी सब मिथ्या॥
तथा ये जानकारी अपने हिंदु भाइयों के ज्ञानवर्धन के लिए भी सादर प्रस्तुत है....

http://oyepages.com/blog/view/id/51282291bc54b25017000004

अब बात करते हैं सिया-हरण की। सीता हरण तो बहुत दूर की बात है, उन जैसी पतिव्रता नारी को छूना तक असम्भव था। उनके सतीत्व में इतना बल था कि अगर कोई भी उनको स्पर्श तक करता तो तत्काल भस्म हो जाता। रावण ने जिनका हरण किया वो वास्तविक माता सीता ना होकर उनकी प्रतिकृति छाया मात्र थी। इसके पीछे एक गूढ रहस्य है, जिसका महर्षि बाल्मीकि कृत रामायण व गोस्वामी तुलसी कृत रामचरित मानस में स्पष्ट वर्णन है...
पंचवटी पर निवास के समय जब श्री लक्ष्मण वन में लकडी लेने गये थे तो प्रभु श्री राम ने माता जानकी से कहा-

"तब तक करो अग्नि में वासा।
जब तक करुं निशाचर नाशा॥"

प्रभु जानते थे कि रावण अब आने वाला है, इसलिए उन्होंने कहा- हे सीते अब वक्त आ गया है, तुम एक वर्ष तक अग्नि में निवास करो, तब तक मैं इस राक्षसों का संहार करता हूँ..

यह रहस्य स्वयं लक्ष्मण भी नहीं जानते थे..

"लक्ष्मनहु ये मरम न जाना।
जो कछु चरित रचा भगवाना॥"

इसीलिए रावण वध के पश्चात जब श्री राम ने लक्ष्मन से अग्नि प्रज्वलित करने के लिए कहा कि सीता अग्नि पार करके ही मेरे पास आयेंगी.. तो सुमित्रानंदन क्रोधित हो गये कि भइया आप मेरी माता समान भाभी पर संदेह कर र्हे हैं.. मैं ऐसा नहीं होने दुंगा.. तब राम ने लक्ष्मण को सारा रहस्य बताया और कहा हे लक्ष्मण सीता और राम तो एक ही हैं.. सीता पर संदेह का अर्थ है मैं स्वयं पर संदेह कर रहा हूँ... और छायारुपी सीता की बात बताई और कहा कि रावण वास्तविक सीता को अगर छू भी लेता तो तत्काल भस्म हो जाता...
इसके बाद स्वयं माता जानकी ने लक्ष्मण से कहा...

"लक्ष्मन हो तुम धर्म के नेगी।
पावक प्रगट करो तुम वेगी॥"

हे लक्ष्मण अगर तुमने धर्म का पालन किया है तो शीघ्रता से अग्नि उत्पन्न करो... उसके बाद छायारुप मां जानकी अग्नि में प्रविष्ट हो गई और वास्तविक सीता मां श्री राम के पास आ गई..॥

वैसे तो उपरोक्त वृतांत रामचरितमानस की चौपाइयों को आधार बनाकर मैंने वर्णन किया है, फिर भी बहुत से ज्ञानी या कहूं मतिमूढ, नकली(छायारुप) सीता वाली बात पर विश्वास नहीं करेंगे... उनके लिए कुछ तथ्य व प्रमाण नीचे सादर प्रस्तुत हैं...


आधुनिक विज्ञान ने ज़ेरोक्स (Xerox) मशीने बनायीं। एक पेपर मशीन में डालो और उसकी जितनी चाहो ज़ेरोक्स कापियाँ (प्रतिलिपियाँ) निकाल लो। आधुनिक विज्ञान ने बॉयलर, कंदैंसर और रेफ्रिज़रेटर जैसी सुविधाजनक तकनीकों को भी आयाम दिया। बॉयलर में ठोस बर्फ डालो और उसे चुटकियों में भाप में बदल दो। इसी तरह भाप को कंदैंसर और रेफ्रिज़रेटर की मदद से वापिस बर्फ में भी बदला जा सकता है।

परन्तु क्या विज्ञानी कोई ऐसी तकनीक बना पाए हैं, जिससे पलक झपकते ही अपनी देह, एक मानव शरीर की ज़ेरोक्स कापियाँ (प्रतिलिपियाँ) बनायी जा सकें? क्या आज की उन्नत लैबोरेटि्यों (प्रयोगशालाओं) में कोई ऐसी तकनीक विकसित हुई है, जिससे अपनी साकार देह को भाप और फिर उसी भाप को ठोस आकार देकर साकार बनाया जा सके? निःसंदेह, वर्तमान वैज्ञानिकों के लिए ये अभी एक परी-कथा ही है। बहुत संभव है कि आपको भी ये बातें कल्पना-जगत की बेलगाम दौड़ लगे।

परन्तु वास्तविकता बिल्कुल अनूठी और विराट है! वास्तव में, एक क्षेत्र ऐसा है जिसके शीश पर इन परमोन्नत तकनीकों के आविष्कारों का सेहरा बंधा है। यह क्षेत्र है- अध्यात्म ज्ञान अथवा वैदिक विज्ञान का! अध्यात्म- पोषित हमारे संत-सत्गुरु और प्राचीन कालीन ऋषिगण इन विलक्षण तकनीकों के कुशल आविष्कारक एवं अनुभवी रहे हैं। वे अपनी देह को इच्छानुसार अदृश्य और प्रकट- वह भी मनचाही गिनती में कई स्थानों पर एक साथ करते रहे हैं।

त्रेताकाल के एक बहु-चर्चित देवी सीता की अग्नि-परीक्षा का प्रसंग इसका उदाहरण है, वर्णानानुसार देवी-सीता के लंका से लौटने पर श्री राम ने उन्हें ज्यों-का-त्यों स्वीकार नहीं किया। रूखे वचन कहकर उन्हें अपनी चारित्रिक विशुधता प्रमाणित करने को कहा। देवी सीता ने तुरंत इस चुनौती को स्वीकार किया और प्रचण्ड अग्नि से गुज़रकर ‘अग्नि परीक्षा’ दी। यह ऐतिहासिक दृष्टांत विद्वानों, समाजवादियों, खासकर तथा-कथित नारी-संरक्षकों के लिए सदा से विवाद का विषय रहा है। वे इसे नारी की अस्मिता के प्रति घोर अन्याय मानते आए हैं।

परन्तु ऐसा केवल इसलिए है, क्यूँकि वे इस परीक्षा के तल में छिपे वैज्ञानिक सत्य को नहीं जानते। दरअसल यह लीला एक अनुपम विज्ञान था। इसकी भूमि सीता हरण से पहले ही रची जा चुकी थी।

अध्यात्म रामायाण (अरण्य काण्ड, सप्तम सर्ग) में स्पष्ट रूप से वर्णित है-
अथ रामः अपि ---- शुभे
अर्थात रावण के षड़यंत्र को समझ, प्रभु श्री राम देवी सीता से एकांत में कहते हैं- ‘है शुभे! मैं जो कहता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो। रावण तुम्हारे पास भिक्षु रूप में आएगा। अतः तुम अपने समान आकृति वाली प्रतिबिम्ब देह कुटी में छोड़कर अग्नि में विलीन हो जाओ। एक वर्ष तक वहीं अदृश्य रूप में सुरक्षित वास करो। रावण वध के पश्चात्त तुम मुझे अपने पूर्ववत स्वरुप में पा लोगी।’ आगे (अरण्य काण्ड २३/२) में लिखा है कि प्रभु का यह सुझाव पाकर श्री सीता जी अग्नि में अदृश्य हो गयी व अपनी छायामुर्ति कुटी में पीछे छोड़ गयीं-
जबही राम ---------- सुबिनीता
माँ सीता के इस वास्तविक स्वरुप को पुनः प्राप्त करने के लिए ही अग्नि-परीक्षा हुई थी। सो, यही अग्नि-परीक्षा के पीछे की सच्ची वास्तविकता है।


परन्तु आज का बौधिक व युवा वर्ग इसे एक अलंकारिक अतिशयोक्ति या जादुई चमत्कार मान बैठता है। किन्तु ऐसा बिल्कुल नहीं है। दार्शनिक स्पिनोजा कहतें हैं ' Nothing happens in nature which is in contradiction with its Universal laws'. डॉ. हर्नाक कहते है 'जिन्हें हम चमत्कार समझते हैं, वे घटनाएँ भी इस सृष्टि और काल के व्यापक नियमों के आधीन हैं। हाँ, यह बात अलग है कि हम उन उच्च कोटि के नियमों को नहीं जानते हों।'


ऋषि पातंजलि इस प्रतिबिम्ब शरीर को निर्माण देह, बोध शास्त्र निर्माण काया कहते हैं। ‘ एकोअहं बहुस्याम’ की ताल पर श्री कृष्ण का रासलीला के अंतर्गत अनेक स्वरूपों में प्रकट होना; कौशल्यानंदन का शयनकक्ष व रसोईघर में एक समय में ही विद्यमान होना- ये सभी योगविज्ञान के साधारण से प्रयोग हैं। विपत्ति काल में सत्गुरु अपने दीक्षित शिष्यों की पुकार पर वे एक ही समय में विश्व के अनेकों भागों में समान रूप, रंग, गुण, कौशल व अभेद देह में प्रकट होते रहे हैं और अपना विरद निभाने के लिए आगे भी यूँ ही प्रकट होते रहेंगे।


किस प्रकार यह प्रकटिकरण होता है? दरअसल, इस सृष्टि में जीव, वस्तु या किसी भी प्रकार की सत्ता के निर्माण में दो अनादी तत्त्वों का मेल चाहिए होता है।


उपादान तत्त्व- यह प्रकृति का सूक्ष्म जड़ तत्त्व है। इसके स्थूल रूप को विज्ञान ‘मैटर’ कहता है। यह तत्त्व त्रिगुण (सत्त्व, रजस, तमस) से युक्त होता है। यह एक तरह से सृष्टि की प्रत्येक सत्ता का raw material माना जाता है।

निमित्त तत्त्व- यह एक चैतन्य शक्ति है, जो चेतना के रूप में सम्पूर्ण सृष्टि व उसके कण-कण में समाई हुई है। इसे वैज्ञानिक शब्दावली में 'cosmic conciousness' भी कहा गया है।

इन दोनों तत्वों के परस्पर संयोग से ही ‘निर्माण’ सधता है। किस प्रकार? आईये, इसके लिए हम एक सरसरी दृष्टि 'Creation of Universe' पर डालें, जहाँ ये दोनों तत्त्व अपने शुद्धतम रूप में प्रकट थे और ‘सृष्टि निर्माण’ में विशुद्ध भूमिका निभा रहे थे।
उपादान( Matter ) + निमित्त ( Conciousness ) = सृष्टि (Universe)

दरअसल इस देह रचना में भी ठीक ‘सृष्टि रचना’ का ही विज्ञान काम करता है। वही दो अनादी तत्वों का प्रयोग होता है-ब्रह्मचेतना तथा प्रकृति के उपादान तत्त्व। यूँ तो चेतना प्रत्येक मनुष्य में क्रियाशील रहती है। परन्तु यह प्रगाढ़ वासनाओं, करम- संस्कारों, अविद्या, अज्ञानता से ढ़की और दबी रहती है। अध्यात्म-ज्ञान या ब्रह्मज्ञान की साधना से ये समस्त आवरण दूर होते हैं व चेतना शुद्धतम प्रखर रूप में प्रकट होती है।


पूर्ण आध्यात्मिक विभूतियों ने चेतना के इसी ब्रह्ममय स्वरुप को पाया हुआ होता है। जब भी आवश्यक होता है, ये पूर्ण चैतन्य विभूतियाँ अपनी ब्रह्ममयी चेतना को प्रकृति के उपादान-तत्त्वों पर आरूढ़ करती हैं। उनकी यह चेतना प्रकृति के परमाणुओं पर लगाम कसती है ओर उनमें विक्षोभ पैदा कर देती है। फिर अपनी इच्छानुसार परमाणुओं में आकर्षण- विकर्षन कर स्वयं अपनी आकृति की देह निर्मित्त कर लेती हैं। वह भी मनचाही संख्या में!! अंततः इस ‘निर्माण देह’ में ‘निर्माण चित्त’ को भी प्रवेश कराके उसे पूर्ण रूप से सजीव कर देती हैं।


देवी सीता के विषय में भी ठीक यही अनादी विज्ञान प्रयोग में लाया गया था। सीता स्वयं में साक्षात चेतना-स्वरूपिणी माँ भगवती थीं। उनके लिए प्रकृति के जड़- तत्त्वों से छेड़छाड़ करके एक प्रतिबिम्ब देह निर्मित कर्म दर्पण देखने के समान सहज था।


परन्तु उनके सन्दर्भ को पूरी तरह प्रकाशित करने के लिए हमें एक तथ्य और जानना होगा। वह यह की वेदों में आदिकालीन ब्रह्म-चेतना को ‘वैश्वानर अग्नि’ भी कहा गया है। ब्रह्मसूत्र में इस अग्नि के विषय में यह बताया गया की यह अग्नि न तो कोई दैविक अग्नि है, न ही भौतिक है। यह निःसंदेह आदिकाल की ब्रह्म-अग्नि ही है।

ऋगवेद में कहा गया है (१-५८-१)-
जब यह अग्नि प्रकट होती है, तो अंतरिक्ष में फैल जाती है। यह प्रकृति के परमाणुओं को सही मार्गों पर ले चलती है और उनका निर्माण कार्य में प्रयोग करती है।

यहीं नहीं ऋग्वेद में एक अन्य ऋषि का कहना है –
केवल प्रकृति के कण-कण में ही नहीं, यह अग्नि मनुष्य के अंग-अंग में भी विद्यमान होती है। परन्तु ध्यान दें, यह अग्नि विद्यमान तो सब में होती है। लेकिन विशुद्ध रूप से प्रकट केवल विकसित आत्माओं में ही होती है-
(ऋग्वेद १-१-२)
यह अग्नि पूर्व (कल्प) के ऋषियों को ज्ञात थी। इस युग के ऋषियों को भी ज्ञात है। यह सभी दैव-स्वरुप आत्माओं को ज्ञात होती है।
अब इन समस्त जानकारियों को साथ लेकर हम सीता-अग्नि-परीक्षा के प्रसंग का वैज्ञानिक विश्लेषण करते हैं।

देवी सीता की अग्नि-परीक्षा का वैज्ञानिक विश्लेषण :

ऋग्वेद (१-५८-२ ) में वैश्वानर अग्नि की त्रि-स्तरीय भूमिका दर्शायी गई है।

वैश्वानर अग्नि शाश्वत चेतना है । यह प्रकृति के परमाणुओं को -
1. Integrate - संयुक्त करती है।
2. Disintegrate- पृथक भी करती है ।
3. Preserve- सुरक्षित भी रखती है।
यह तीनों वही भूमिकाएँ हैं, जो सृष्टि-निर्माण-कार्य में ब्रह्म-चेतना की थीं। और यही वे वैज्ञानिक क्रियाएँ हैं, जो सीता-अग्नि-परीक्षा में भी प्रयोग की गईं। सीता-हरण से पूर्व जब श्री राम ने देवी सीता को अपना प्रतिबिम्ब पीछे छोड़कर अग्नि में निवास करने को कहा , तो वास्तव में क्या हुआ? क्या वैज्ञानिक-लीला घटी ? सीता ने तत्क्षण अग्नि प्रकट की। कदाचित यह कोई लौकिक अग्नि नहीं, वैश्वानर अग्नि ही थी। अर्थात सीता ने अपनी ब्रह्म चेतना को सक्रिय किया। फिर उसके द्वारा प्रकृति के परमाणुओं में हस्तक्षेप किया। उन्हें प्रयोजनानुसार जोड़कर एक अन्य निज-देह प्रकट कर ली। यह पहली वैज्ञानिक क्रिया थी।

इसके पश्चात माँ सीता ने ब्रह्म-चेतना या वैश्वानर अग्नि के द्वारा अपनी वास्तविक देह के परमाणुओं को अलग-अलग कर दिया। प्रसंग के अनुसार माँ सीता कि वास्तविक देह अग्नि में विलीन हो गयी थी। अग्नि में यह विलीनता वैज्ञानिक स्तर पर वैश्वानर अग्नि द्वारा देह का उपादान तत्व में बिखर जाना अर्थात 'disintegration of body' ही था। यह दूसरी वैज्ञानिक क्रिया थी।

फिर ये पृथक तत्त्व या परमाणु एक वर्ष तक उनकी वैश्वानर अग्नि के संरक्षण में रहे। उसी वैश्वानर अग्नि अथवा ब्रह्म-चेतना के, जो सकल सृष्टि के परमाणुओं की रक्षा करती है व जिसका आह्वान कर ऋषियों ने कहा- (ऋग्वेद १-१-१) - हे अग्नि स्वरूप ब्रह्म-चेतना! पिता स्वरुप में , अपनी संतान की तरह हमारी रक्षा करो। कहने का आशर्य यह है कि सीता सशरीर नहीं, परमाणुओं के रूप में ब्रह्माण्ड की वैश्वानर अग्नि में समाहित रहीं। यह तीसरी वैज्ञानिक प्रक्रिया थी ।

एक वर्ष बाद ... विजय बिगुल बजे और पुनर्मिलन की बेला आई। तब पुनः यहीं विज्ञान दोहराया गया। रामायण (युद्धकाण्ड सर्ग १२/७५ ) के प्रसंगानुसार -

राघव ने एक विशेष कार्य के लिए निर्मित मायावत सीता को देखा और अग्नि-परीक्षा देने को कहा। श्री राम का यह कथन, वास्तव में देवी सीता को पुनः उसी वैज्ञानिक प्रक्रिया का संधान करने की प्रेरणा ही थी। उस समय प्रतीकात्मक रूप में भौतिक अग्नि जलाई गयी। परन्तु सीता जी का आह्वान तो वैश्वानर अग्नि के प्रति ही था।
(युद्धकाण्ड सर्ग -१३ )- हे सर्वव्यापक! अति पावन! लोक साक्षी अग्नि !...स्पष्ट है, ये संबोधन लौकिक अग्नि के लिए नहीं हो सकते थे। अतः लौकिक अग्नि की आड़ मेंवैश्वानर-अग्नि (ब्रह्मचेतना) पुनः सक्रिय हुई। उसने सीता जी की प्रतिबिम्ब देह के परमाणुओं को बिखेर कर पुनः प्रकृति में मिला दिया। फिर वास्तविक देह के परमाणुओं को एकत्र कर पूर्ववत जोड़ दिया। देवी सीता को सुरक्षित रूप में श्री राम के समक्ष प्रकट किया। यहीं वैज्ञानिक विलास प्रतीकात्मक शैली में इस प्रकार रखा गया- लोक साक्षी भगवन वास्तविक जानकी को पिता के समान गोद में बिठाए हुए प्रकट हुए और रघुनाथ जी से बोले- मेरे पितास्वरूप संरक्षण में सौंपी हुई जानकी को पुनः ग्रहण कीजिये।
वह प्रतिबिंबरुपिणी सीता जिस कार्य के लिए रची गयी थी, उसे पूरा करके पुनः अदृश्य हो गयी है।

यह वचन सुनकर श्री राम ने अत्यंत प्रसन्नता से जानकी जी को स्वीकार कर लिया। उसी क्षण इस विज्ञान के ज्ञाताओं - ब्रह्मा, महेश आदि देवताओं ने आकाश से फूल बरसाए। परन्तु अवैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वालों ने उस काल से आज तक कभी सीता पर कलंक, तो कभी राम पार आक्षेप लगाए।

**भूल सुधार अपेक्षित।
 

रविवार, 17 फ़रवरी 2013

दो घंटे युद्ध और चलता ! तो भारत की सेना ने लाहोर तक कब्जा कर लिया होता !! 
लेकिन तभी पाकिस्तान को लगा कि जिस रफ्तार से भारत की सेना आगे बढ़ रही
हमारा तो पूरा अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा !

तभी पाकिस्तान ने अमेरिका से कहा कि वो किसी तरह से युद्ध रुकवा दे !! 
अमेरिका जानता था कि शास्त्री जी इतनी जल्दी नहीं मानने वाले !! क्यूँ कि वो 
पहले भी दो -तीन बार भारत को धमका चुका था !!

धमका कैसे चुका था ??

अमेरिका से गेहूं आता था भारत के लिए PL 48 स्कीम के अंडर ! ! PL मतलब
public law 48 ! जैसे भारत मे सविधान मे धराए होती है ऐसे अमेरिका मे PL 
होता है ! तो बिलकुल लाल रंग का सड़ा हुआ गेंहू अमेरिका से भारत मे आता था ! 
और ये समझोता पंडित नेहरू ने किया था !! 

जिस गेंहू को अमेरिका मे जानवर भी नहीं खाते थे उसे भारत के लोगो के लिए
आयात करवाया जाता था ! आपके घर मे कोई बुजुर्ग हो आप उनसे पूछ सकते हैं 
कितना घटिया गेहूं होता था वो !!

तो अमेरिका ने भारत को धमकी दी कि हम भारत को गेहूं देना बंद कर देंगे ! 
तो शास्त्री जी ने कहा हाँ कर दो ! फिर कुछ दिन बाद अमेरिका का ब्यान आया 
कि अगर भारत को हमने गेंहू देना बंद कर दिया ! तो भारत के लोग भूखे मर जाएँगे !!

शास्त्री जी ने कहा हम बिना गेंहू के भूखे मारे या बहुत अधिक खा के मरे ! 
तुम्हें क्या तकलीफ है !???
हमे भूखे मारना पसंद होगा बेशर्ते तुम्हारे देश का सड़ा हुआ गेंहू खाके !! एक तो हम 
पैसे भी पूरे दे ऊपर से सड़ा हुआ गेहूं खाये ! नहीं चाहीये तुम्हारा गेंहू !!

फिर शास्त्री ने दिल्ली मे एक रामलीला मैदान मे लाखो लोगो से निवेदन किया कि 
एक तरफ पाकिस्तान से युद्ध चल रहा है ! ऐसे हालातो मे देश को पैसे कि बहुत जरूरत
पड़ती है ! सब लोग अपने फालतू खर्चे बंद करे ! ताकि वो domestic saving से देश 
के काम आए ! या आप सीधे सेना के लिए दान दे ! और हर व्यति सप्ताह से एक दिन 
सोमवार का वर्त जरूर रखे !! 

तो शास्त्री जी के कहने पर देश के लाखो लोगो ने सोमवार को व्रत रखना शुरू कर दिया ! 
हुआ ये कि हमारे देश मे ही गेहु बढ्ने लगा ! और शास्त्री जी भी खुद सोमवार का व्रत
रखा रखते थे !!

शास्त्री जी ने जो लोगो से कहा पहले उसका पालन खुद किया ! उनके घर मे बाई 
आती थी !! जो साफ सफाई और कपड़े धोती थी ! तो शास्त्री जी उसको हटा दिया और 
बोला ! देश हित के लिए मैं इतना खर्चा नहीं कर सकता ! मैं खुद ही घर कि सारी सफाई 
करूंगा !क्यूंकि पत्नी ललिता देवी बीमार रहा करती थी !
और शास्त्री अपने कपड़े भी खुद धोते थे ! उनके पास सिर्फ दो जोड़ी धोती कुरता ही थी !!

उनके घर मे एक ट्यूटर भी आया करता था जो उनके बच्चो को अँग्रेजी पढ़ाया करता
था ! तो शास्त्री जी ने उसे भी हटा दिया ! तो उसने शास्त्री जी ने कहा कि आपका अँग्रेजी
मे फेल हो जाएगा ! तब शास्त्री जी ने कहा होने दो ! देश के हजारो बच्चे अँग्रेजी मे ही 
फेल होते है तो इसी भी होने दो ! अगर अंग्रेज़ हिन्दी मे फेल हो सकते है तो भारतीय 
अँग्रेजी मे फेल हो सकते हैं ! ये तो स्व्भविक है क्यूंकि अपनी भाषा ही नहीं है ये !! 


एक दिन शास्त्री जी पत्नी ने कहा कि आपकी धोती फट गई है ! आप नहीं धोती ले 
आईये ! शास्त्री जी ने कहा बेहतर होगा ! कि सोई धागा लेकर तुम इसको सिल दो ! 
मैं नई धोती लाने की कल्पना भी नहीं कर सकता ! मैंने सब कुछ छोड़ दिया है पगार
लेना भी बंद कर दिया है !! और जितना हो सके कम से कम खर्चे मे घर का खर्च चलाओ !!

अंत मे शास्त्री जी युद्ध के बाद समझोता करने ताशकंद गए ! और फिर जिंदा कभी वापिस 
नहीं लौट पाये !! पूरे देश को बताया गया की उनकी मृत्यु हो गई ! जब कि उनकी ह्त्या 
कि गई थी !!

ह्त्या का सारा राज जानने के लिए यहाँ click करे 
http://youtu.be/BJmkS7azuGU
_____________________________

भारत मे शास्त्री जी जैसा सिर्फ एक मात्र प्रधानमंत्री हुआ ! जिसने अपना पूरा जीवन 
आम आदमी की तरह व्तीत किया ! और पूरी ईमानदारी से देश के लिए अपना फर्ज 
अदा किया !!
जिसने जय जवान और जय किसान का नारा दिया !!

क्यूंकि उनका मानना था देश के लिए अनाज पैदा करने वाला किसान और सीमा कि 
रक्षा करने वाला जवान बहुत दोनों देश ले लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है !!

स्वदेशी की राह पर उन्होने देश को आगे बढ़ाया ! विदेशी कंपनियो को देश मे घुसने 
नहीं दिया ! अमेरिका का सड़ा गेंहू बंद करवाया !!

ऐसा प्रधानमंत्री भारत को शायद ही कभी मिले ! अंत मे जब उनकी paas book 
चेक की गई तो सिर्फ 365 रुपए 35 पैसे थे उनके बैंक आकौंट मे ! !

शायद आज कल्पना भी नहीं कर सकते ऐसा नेता भारत मे हुआ !! 

आज प्र्धामंत्री अमेरिका ke agent है ! लाखो करोड़ो के घोटाले करते है !!
विदेशी कंपनियो को भगाना तो दूर !! walmart ला रहे हैं !!
लाखो करोड़ो के घोटाले कर रहे हैं 
JAI HO AISE SACCHE DESHBHAKT KI!!!
ITIHAAS AUR BHARAT VASIYO NE AAPKO BHULA DIYA, LEKIN HUM KASAM KHAATE HAIN KI NAAT TO AAPKO HUM KABHI BHULENGE NA HI KABHI RAJPUTANA KO BHOOLNE DENGE........
JAI HIND!!!!

समुन्द्र्कूप

इलाहाबाद के इस अनोखे कुंड में होता है सात
समुद्रों का मिलन
संगम नगरी इलाहाबाद में केवल तीन नदियों के
पानी का ही नहीं, ब्लकि सात समुंद्र के
पानी का मिलन भी होता है। यह सुनने मे ज़रूर
अजीब है पर यह सच है। इलाहाबाद मे एक
ऐसा कुंआ है जो कई हज़ार साल पुराना है और
सैकड़ों फीट गहरा है। पुराणों में यह वर्णन
मिलता है कि इस कुंए मे सात समुद्रों का जल
आकर मिलता है। वर्तमान में यह कूप गंगा के
किनारे एक विशाल, उंचे टीले पर स्थित है।
इस कूप का व्यास लगभग 22 फीट है।
पत्थरों से बने इस कूप के जगत पर विष्णु
का पदचाप एवं शिवजी की मूर्ति है। इस कूप
को समुद्र कूप की संज्ञा दी गई है। समुद्रकूप
का पूरा परिसर 10 से 12 फीट ऊंची ईंट
की चहारदीवारी से घिरा है। समुद्रकूप के पास
एक आश्रम भी है जहां यह वर्णन मिलता है
कि द्वापर युग मे पांडव लाक्षागृह से बचने के
बाद यहां आए थे।
पद्म पुराण और भागवत पुराण मे यह वर्णन
मिलता है कि कई ह़जार वर्ष पहले चंद्र वंश के
पहले पुरुष राजा पुरुरवा ने इलाहाबाद के समीप
गंगा नदी के किनारे प्रतिष्ठान पुरी नामक नगर
बसाया था। जो वर्तमान मे झूंसी कहलाता है।
उन्होंने कई 100 सालों तक यही रह कर
अपना शासन किया। उनके शासन के दौरान
स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी भी उनके साथ करीब
100 साल तक उनके साथ यहीं रही।
उर्वशी को ऋषि दुर्वासा ने तप मे बाधा उत्पन
करने के कारण मृत्युक लोक मे रहने का श्राप
दिया था। इन्ही राजा पुरुरवा और
उर्वशी की संतान से चंद्र वंश चला और
इशी चंद्र वंश की 65 कडी मे भगवान् कृष्ण ने
जन्म लिया।
उन्ही राजा पुररवा ने ही इस समुद्र कूप
का निर्माण करवाया था। राजा ने कई यज्ञ और
अनुष्ठान के लिए सातों समुद्रों का आह्वान इस
कूप मे किया था। तभी से इस कूप मे
सातों समुंदरों का जल पाया जाता है। इस कूप
का कुल व्यास करीब 22 मीटर का है
तथा इसकी गहराई के बारे मे कोई
अंदाजा नही लगया जा सकता। ऊपर से देखने पर
यह करीब 100 फीट गहरा दिखाई देता है। पर
जिन लोगों ने इस कुए में प्रवेश किया है,
उनका मानना है कि इस कुएं की सतह पर एक
लोहे का तवा रखा हुआ है, जिसके अन्दर ना जाने
कितना और गहरा इसका स्रोत है। इस कूप के
चारो तरफ़ 10 से 12 फीट उची दीवार है।
गंगा नदी के किनारे होने के बावजूद आज भी इस
कुंए का पानी समुद्र के पानी की तरह खारा है
जिससे यह साबित होता है कि इस कूप मे समुद्र
का जल है।
इस समुद्र कूप के पुजारी महंत बाल कृष्ण कहते
है कि इस समुद्र कूप का वर्णन पद्म पुराण और
मत्स्य पुराण में भी मिलता है। जब द्वापर युग मे
पांचो पांडव लाक्षा गृह से बच के आए थे
तो उन्होंने यही पर रह कर इस कुंए के जल से
अश्वमेघ यज्ञ किया था। यहीं से उनकी विजय
के लिए ब्रह्मा जी ने उन्हे वरदान दिया था।
पद्म पुराण मे यह वर्णन भी मिलता है कि एक
मुनि ने इस कूप के बारे मे युधिष्ठि्र
को बताया था।
यह वर्णन मिलता है कि इस कूप के किनारे
ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए क्रोध को शांत
करके तीन रात तक यहां विश्राम कर ले तो उसके
सब पाप कट जाते हैं। इसके जल का आचमन करने
से परमपद की प्राप्ति होती है।
इस कूप के बारे मे मत्स्य पुराण मे
भी लिखा गया है कि प्रतिष्ठान पुरी में एक महान
कूप है जिसके दर्शन मात्र से मनुष्य पाप रहित
हो जाता है। अमावस्या पूर्णिमा और चंद्रग्रहण
के समय इस कूप की परिक्रमा से
पृथ्वी की परिक्रमा का फल मिलता है। यहां पर
स्नान दान करने से यश प्राप्त होता है और अंत
में इंसान स्वर्ग को प्राप्त होता है। कहा जाता है
कि महाकुम्भ में संगम किनारे कल्पवास करने
की बाद अगर इस समुन्द्र्कूप के दर्शन नहीं किए
जाये तो कल्पवास का सारा फल व्यर्थ
हो जाता है।

शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

संस्कार

एक किसान का बेटा मुंबई पढने चला गया वहा उसको मॉडल लड़की से प्रेम हो गया जो पूरी तरह से वेस्टर्न संस्कृति में लिपि पुती थी कुछ
दिनों के बाद लड़के को एहसास हो गया की यो मेल न हो सकता और उसने लड़की को पत्र लिखा ----------)(->

ओ कंप्यूटर युग की छोरी मन की काली तन की गोरी करना मुझको माफ़ मैं तुम्हे प्यार नही करपाउँगा 
तू फैशन tv सी लगती मैं संस्कार काचेनल हूँ
तू मिनरल पानी की बोतल लगती है मैं गंगा का पावन जल हू
तुम लाखो की गाड़ी में चलने वाली मैं पाव पाव चलने वाला
तुम हलोजन सी जलती हो मैं दीपक सा जलने वाला
करना मुझको माफ़ मैं तुम्हे प्यार नही कर पाउँगा

तुम रैंप पर देह दिखाती हो मैं संस्कार को जीता हू
जब तुम्हे देख कर सिटी बजती मैं घुट लहू का पीता हूँ
तुम सूप पीने वाली मैं मैठा पीने वाला
तुम शॉक अलार्म से भी ना डरो मैं पॉपकॉर्न से डरने वाला
तुम डिस्को की धुन पर नाचो मैं राम नाम ही जबता हूँ
तुम पीता जी को डैड और टेलीफोन को भी डैड कहो और
माँ को मम्मी(mummy) बुलाती हो
तुम करवा चौथ भूल बैठी और वेलन टाइम डे मनाती हो
तुम पॉप म्यूजिक की धुन सी बजती मैं बंसी की धुन का धनिया
मुझ से डॉट कॉम भी ना लगती तुम इंटरनेटी दुनिया
तुम मोबाइल पर मेसेज लिखने वाली मैं पोस्टकार्ड लिखने वाला
तुम राकेट सी लगती हो और मैं उड़ने वाला गुब्बारा सा
तू अपना सब कुछ हार चुकी मैं जीता हुआ जुआरी हूँ
तुम इटली की रानी जैसी मैं देसी अटल बिहारी ह

स्वर्णिम हिंद का स्वर्णिम स्वप्न(सोमनाथ मंदिर का इतिहास::--)

सोमनाथ मंदिर का इतिहास::--
मंदिर का बार-बार खंडन और जीर्णोद्धार
होता रहा पर शिवलिंग यथावत रहा। लेकिन सन
1026 में महमूद गजनवी ने जो शिवलिंग खंडित
किया, वह वही आदि शिवलिंग था। इसके बाद
प्रतिष्ठित किए गए शिवलिंग को 1300 में
अलाउद्दीन की सेना ने खंडित किया। इसके बाद
कई बार मंदिर और शिवलिंग खंडित किया गया।
बताया जाता है आगरा के किले में रखे देवद्वार
सोमनाथ मंदिर के हैं। महमूद गजनवी सन 1026
में लूटपाट के दौरान इन द्वारों को अपने साथ ले
गया था। सोमनाथ मंदिर के मूल मंदिर स्थल पर
मंदिर ट्रस्ट द्वारा निर्मित नवीन मंदिर स्थापित
है। राजा कुमार पाल द्वारा इसी स्थान पर अंतिम
मंदिर बनवाया गया था।
सौराष्ट्र के मुख्यमंत्री उच्छंगराय नवल शंकर ने
19 अप्रैल 1940 को यहां उत्खनन कराया था।
इसके बाद भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने
उत्खनन द्वारा प्राप्त ब्रह्माशिला पर शिव
का ज्योतिर्लिग स्थापित किया है। सौराष्ट्र के
पूर्व राजा दिग्विजय सिंह ने 8 मई 1950
को मंदिर की आधार शिला रखी तथा 11 मई
1951 को भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ.
राजेंद्र प्रसाद ने मंदिर में ज्योतिर्लिग स्थापित
किया। नवीन सोमनाथ मंदिर 1962 में पूर्ण
निर्मित हो गया। 1970 में जामनगर
की राजमाता ने अपने स्वर्गीय पति की स्मृति में
उनके नाम से दिग्विजय द्वार बनवाया। इस
द्वार के पास राजमार्ग है और पूर्व
गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा है।
सोमनाथ मंदिर निर्माण में पटेल का बड़ा योगदान
रहा।
मंदिर के दक्षिण में समुद्र के किनारे एक स्तंभ
है। उसके ऊपर एक तीर रखकर संकेत
किया गया है कि सोमनाथ मंदिर और दक्षिण
ध्रुव के बीच में पृथ्वी का कोई भूभाग नहीं है।
मंदिर के पृष्ठ भाग में स्थित प्राचीन मंदिर के
विषय में मान्यता है कि यह पार्वती जी का मंदिर
है। सोमनाथजी के मंदिर की व्यवस्था और
संचालन का कार्य सोमनाथ ट्रस्ट के अधीन है।
सरकार ने ट्रस्ट को जमीन, बाग-बगीचे देकर
आय का प्रबंध किया है। यह तीर्थ पितृगणों के
श्राद्ध, नारायण बलि आदि कर्मो के लिए
भी प्रसिद्ध है। चैत्र, भाद्र, कार्तिक माह में
यहां श्राद्ध करने का विशेष महत्व
बताया गया है। इन तीन महीनों में
यहां श्रद्धालुओं की बड़ी भीड़ लगती है। इसके
अलावा यहां तीन नदियों हिरण, कपिला और
सरस्वती का महासंगम होता है। इस
त्रिवेणी स्नान का विशेष महत्व है।
'' हर हर महादेव ''

स्वर्णिम हिंद का स्वर्णिम स्वप्न'

आप माने या न माने लेकिन हमारे देश में मरने के बाद भी तीन दशकों से एक सिपाही सरहदों की रक्षा कर रहा है।
इस सिपाही को अब लोग कैप्टन बाबा हरभजन सिंह के नाम से पुकारते हैं।
4 अक्टूबर 1968 में सिक्किम के साथ लगती चीन की सीमा के साथ नाथुला पास में गहरी खाई में गिरने से मृत्यु हो गई थी।
लोगों का ऐसा मानना है कि तब से लेकर आज तक यह सिपाही की आत्मा सरहदों की रक्षा कर रही है।
इस बात पर हमारे देश के सैनिकों को पूरा विश्ववास तो है ही लेकिन चीन के सैनिक भी इस बात को मानते हैं
क्योंकि उन्होंने कैप्टन बाबा हरभजन सिंह को मरने के बाद घोड़े पर सवार होकर सरहदों की गश्त करते हुए देखा है।
कैप्टन हरभजन सिंह का जन्म 3 अगस्त 1941 को पंजाब के कपूरथला जिला के ब्रोंदल गांव में हुआ था।
उन्होंने वर्ष 1966 में 23वीं पंजाब बटालियन ज्वाइन की थी।
वह सिक्किम जब 4 अक्टूबर 1968 में टेकुला सरहद से घोड़े पर सवार होकर अपने मुख्यालय डेंगचुकला जा रहे थे
तो वह एक तेज बहते हुए झरने में जा गिरे और उनकी मौत हो गई।
उन्हें पांच दिन तक जीवित मानकर लापता घोषित कर दिया गया था।
पांचवें दिन उनके साथी सिपाही प्रीतम सिंह को सपने में आकर मृत्यू की जानकारी दी और बताया की उनका शव कहां पड़ा है।
उन्होंने प्रीतम प्रीतम सिंह से यह भी इच्छा जाहिर की कि उनकी समाधि भी वहीं बनाई जाए।
पहले प्रीतम सिंह कि बात का किसी ने विश्वास नहीं कि
लेकिन जब उनका शव उसी स्थल पर मिला जहां उन्होंने बताया था तो सेना के अधिकारियों को उनकी बात पर विश्वास हो गया।
और सेना के अधिकारियों ने उनकी छोक्या छो नामक स्थान पर उनकी समाधि बना डाली।
उनके आज भी रात को ही जवान वर्दी को प्रेस कर देते हैं उनके जूतों को पॉलिश कर दिया जाता है
क्योंकि ऐसी धारणा है कि उन्हें सुबह सरहद पर डयूटी पर जाना होता है।
उनके कमरे में रोजाना सफाई की जाती है
सरकार ने उन्हें मृत न घोषित करते हुए उनकी सेवाओं को जारी रखा
उनके परिवार के सदस्यों को पेंशन नहीं मिलती थी उनका वेतन उनके घर बाकायदा फौज के जवान देकर जाते थे।
मरने के बाद बाबा कैप्टन बाबा को सेना के अधिकारियों ने सिपाही से पदोन्नत कर कैप्टन बना दिया।
वह किसी न किसी तरह सीमा के पार होने वाली गतिविधियों की जानकारी आज भी सेना के अधिकारियों को दे देते हैं।
अब काफी समय के बाद सेना ने उनका वेतन बंद कर दिया है।
हालांकि उनकी समाधि पर चढऩे वाला चढ़ावा उनके घर आज भी भिजवा दिया जाता है।
हर वर्ष उन्हें 15 सितंबर से 15 नंवबर तक वार्षिक छुट्टी पर जाना होता है।
इस दौरान फौज के दो सिपाही उनका सामान लेकर घर जाते हैं
और उनकी छुट्टी खतम होने पर उनका सामान वापस लेकर आते है।
इस दौरान युनिट के सभी फौजियों की छुट्टियां रद्द कर दी जाती हैं।
सिक्कम के लोग भगवान कंचनजुंगा के बाद दूसरा भगवान इन्हें मानते
हैं।

बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

हिन्दू धर्म (संस्कृत: सनातन धर्म)

हिन्दू धर्म (संस्कृत: सनातन धर्म) विश्व के सभी धर्मों में सबसे पुराना धर्म है। ये वेदों पर आधारित धर्म है, जो अपने अन्दर कई अलग अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय, और दर्शन समेटे हुए है। अनुयायियों की संख्या के आधार पर ये विश्व का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है, संख्या के आधार पर इसके अधिकतर उपासक भारत में हैं और प्रतिशत के आधार पर नेपाल में है। हालाँकि इसमें कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, लेकिन वास्तव में यह एकेश्वरवादी धर्म है।

हिन्दी में इस धर्म को सनातन धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहते हैं। इण्डोनेशिया में इस धर्म का औपचारिक नाम "हिन्दु आगम" है। हिन्दू केवल एक धर्म या सम्प्रदाय ही नही है अपितु जीवन जीने की एक पद्धति है "


हिन्दू धर्म का १९६०८५३११० साल का इतिहास हैं। भारत (और आधुनिक पाकिस्तानी क्षेत्र) की सिन्धु घाटी सभ्यता में हिन्दू धर्म के कई चिह्न मिलते हैं। इनमें एक अज्ञात मातृदेवी की मूर्तियाँ, शिव पशुपति जैसे देवता की मुद्राएँ, लिंग, पीपल की पूजा, इत्यादि प्रमुख हैं। हिन्दू धर्म का मूल कदाचित सिन्धु सरस्वती परम्परा (जिसका स्रोत मेहरगढ़ की ६५०० ईपू संस्कृति में मिलता है) से भी पहले की भारतीय परम्परा में है।

भारतवर्ष को प्राचीन ऋषियों ने "हिन्दुस्थान" नाम दिया था जिसका अपभ्रंश "हिन्दुस्तान" है। "बृहस्पति आगम" के अनुसार:

हिमालयात् समारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्। तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते॥

अर्थात, हिमालय से प्रारम्भ होकर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक यह देव निर्मित देश हिन्दुस्थान कहलाता है।

"हिन्दू" शब्द "सिन्धु" से बना माना जाता है। संस्कृत में सिन्धु शब्द के दो मुख्य अर्थ हैं - पहला, सिन्धु नदी जो मानसरोवर के पास से निकल कर लद्दाख़ और पाकिस्तान से बहती हुई समुद्र मे मिलती है, दूसरा - कोई समुद्र या जलराशि। ऋग्वेद की नदीस्तुति के अनुसार वे सात नदियाँ थीं : सिन्धु, सरस्वती, वितस्ता (झेलम), शुतुद्रि (सतलुज), विपाशा (व्यास), परुषिणी (रावी) और अस्किनी (चेनाब)। एक अन्य विचार के अनुसार हिमालय के प्रथम अक्षर "हि" एवं इन्दु का अन्तिम अक्षर "न्दु", इन दोनों अक्षरों को मिलाकर शब्द बना "हिन्दु" और यह भूभाग हिन्दुस्थान कहलाया। हिन्दू शब्द उस समय धर्म की बजाय राष्ट्रीयता के रुप में प्रयुक्त होता था। चूँकि उस समय भारत में केवल वैदिक धर्म को ही मानने वाले लोग थे, बल्कि तब तक अन्य किसी धर्म का उदय नहीं हुआ था इसलिये "हिन्दू" शब्द सभी भारतीयों के लिये प्रयुक्त होता था। भारत में केवल वैदिक धर्मावलम्बियों (हिन्दुओं) के बसने के कारण कालान्तर में विदेशियों ने इस शब्द को धर्म के सन्दर्भ में प्रयोग करना शुरु कर दिया।

आम तौर पर हिन्दू शब्द को अनेक विश्लेषकों द्वारा विदेशियों द्वारा दिया गया शब्द माना जाता है। इस धारणा के अनुसार हिन्दू एक फ़ारसी शब्द है। हिन्दू धर्म को सनातन धर्म या वैदिक धर्म भी कहा जाता है। ऋग्वेद में सप्त सिन्धु का उल्लेख मिलता है - वो भूमि जहाँ आर्य सबसे पहले बसे थे। भाषाविदों के अनुसार हिन्द आर्य भाषाओं की "स्" ध्वनि (संस्कृत का व्यंजन "स्") ईरानी भाषाओं की "ह्" ध्वनि में बदल जाती है। इसलिये सप्त सिन्धु अवेस्तन भाषा (पारसियों की धर्मभाषा) मे जाकर हफ्त हिन्दु मे परिवर्तित हो गया (अवेस्ता: वेन्दीदाद, फ़र्गर्द 1.18)। इसके बाद ईरानियों ने सिन्धु नदी के पूर्व में रहने वालों को हिन्दु नाम दिया। जब अरब से मुस्लिम हमलावर भारत में आए, तो उन्होने भारत के मूल धर्मावलम्बियों को हिन्दू कहना शुरू कर दिया।

हिन्दू धर्म में कोई एक अकेले सिद्धान्तों का समूह नहीं है जिसे सभी हिन्दुओं को मानना ज़रूरी है। ये तो धर्म से ज़्यादा एक जीवन का मार्ग है। इसके अन्तर्गत कई मत और सम्प्रदाय आते हैं, और सभी को बराबर श्रद्धा दी जाती है। धर्मग्रन्थ भी कई हैं। फ़िर भी, वो मुख्य सिद्धान्त, जो ज़्यादातर हिन्दू मानते हैं, हैं इन सब में विश्वास : धर्म (वैश्विक क़ानून), कर्म (और उसके फल), पुनर्जन्म का सांसारिक चक्र, मोक्ष (सांसारिक बन्धनों से मुक्ति--जिसके कई रास्ते हो सकते हैं), और बेशक, ईश्वर। हिन्दू धर्म स्वर्ग और नरक को अस्थायी मानता है। हिन्दू धर्म के अनुसार संसार के सभी प्राणियों में आत्मा होती है। मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो इस लोक में पाप और पुण्य, दोनो कर्म भोग सकता है, और मोक्ष प्राप्त कर सकता है। हिन्दू धर्म में चार मुख्य सम्प्रदाय हैं : वैष्णव (जो विष्णु को परमेश्वर मानते हैं), शैव (जो शिव को परमेश्वर मानते हैं), शाक्त (जो देवी को परमशक्ति मानते हैं) और स्मार्त (जो परमेश्वर के विभिन्न रूपों को एक ही समान मानते हैं)। लेकिन ज्यादातर हिन्दू स्वयं को किसी भी सम्प्रदाय में वर्गीकृत नहीं करते हैं।

संक्षेप में, हिन्‍दुत्‍व के प्रमुख तत्त्व निम्नलिखित हैं-

हिन्दू-धर्म हिन्दू-कौन?--
गोषु भक्तिर्भवेद्यस्य प्रणवे च दृढ़ा मतिः।
पुनर्जन्मनि विश्वासः स वै हिन्दुरिति स्मृतः।।
अर्थात-- गोमाता में जिसकी भक्ति हो, प्रणव जिसका पूज्य मन्त्र हो, पुनर्जन्म में जिसका विश्वास हो--वही हिन्दू है।

मेरुतन्त्र ३३ प्रकरण के अनुसार
' हीनं दूषयति स हिन्दु ' अर्थात जो हीन ( हीनता या नीचता ) को दूषित समझता है (उसका त्याग करता है) वह हिन्दु है।

लोकमान्य तिलक के अनुसार-
असिन्धोः सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारतभूमिका।
पितृभूः पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरिति स्मृतः।।
अर्थात्- सिन्धु नदी के उद्गम-स्थान से लेकर सिन्धु (हिन्द महासागर) तक सम्पूर्ण भारत भूमि जिसकी पितृभू (अथवा मातृ भूमि) तथा पुण्यभू ( पवित्र भूमि) है, ( और उसका धर्म हिन्दुत्व है ) वह हिन्दु कहलाता है।

कालिका पुराण, मेदनी कोष आदि के आधार पर वर्तमान हिन्दू ला के मूलभूत आधारों के अनुसार वेदप्रतिपादित रीति से वैदिक धर्म में विश्वास रखने वाला हिन्दू है। यद्यपि कुछ लोग कई संस्कृति के मिश्रित रूप को ही भारतीय संस्कृति मानते है, जबकि ऐसा नही है। जिस संस्कृति या धर्म की उत्पत्ती एवं विकास भारत भूमि पर नहीं हुआ है, वह धर्म या संस्कृति भारतीय ( हिन्दू ) कैसे हो सकती है।


1. ईश्वर एक नाम अनेक

2. ब्रह्म या परम तत्त्व सर्वव्यापी है

3. ईश्वर से डरें नहीं, प्रेम करें और प्रेरणा लें

4. हिन्दुत्व का लक्ष्य स्वर्ग-नरक से ऊपर

5. हिन्दुओं में कोई एक पैगम्बर नहीं है,

6. धर्म की रक्षा के लिए ईश्वर बार-बार पैदा होते हैं

7. परोपकार पुण्य है दूसरों के कष्ट देना पाप है.

8. जीवमात्र की सेवा ही परमात्मा की सेवा है

9. स्त्री आदरणीय है

10. सती का अर्थ पति के प्रति सत्यनिष्ठा है

11. हिन्दुत्व का वास हिन्दू के मन, संस्कार और परम्पराओं में

12. पर्यावरण की रक्षा को उच्च प्राथमिकता

13. हिन्दू दृष्टि समतावादी एवं समन्वयवादी

14. आत्मा अजर-अमर है

15. सबसे बड़ा मंत्र गायत्री मंत्र

16. हिन्दुओं के पर्व और त्योहार खुशियों से जुड़े हैं

17. हिन्दुत्व का लक्ष्य पुरुषार्थ है और मध्य मार्ग को सर्वोत्तम माना गया है

18. हिन्दुत्व एकत्व का दर्शन है


हिन्दू धर्मग्रन्थ उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म ही परम तत्व है (इसे त्रिमूर्ति के देवता ब्रह्मा से भ्रमित न करें)। वो ही जगत का सार है, जगत की आत्मा है। वो विश्व का आधार है। उसी से विश्व की उत्पत्ति होती है और विश्व नष्ट होने पर उसी में विलीन हो जाता है। ब्रह्म एक, और सिर्फ़ एक ही है। वो विश्वातीत भी है और विश्व के परे भी। वही परम सत्य, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है। वो कालातीत, नित्य और शाश्वत है। वही परम ज्ञान है। ब्रह्म के दो रूप हैं : परब्रह्म और अपरब्रह्म। परब्रह्म असीम, अनन्त और रूप-शरीर विहीन है। वो सभी गुणों से भी परे है, पर उसमें अनन्त सत्य, अनत चित् और अनन्त आनन्द है। ब्रह्म की पूजा नही की जाती है, क्योंकि वो पूजा से परे और अनिर्वचनीय है। उसका ध्यान किया जाता है। प्रणव ॐ (ओम्) ब्रह्मवाक्य है, जिसे सभी हिन्दू परम पवित्र शब्द मानते हैं। हिन्दु यह मानप्ते है कि ओम की ध्वनि पूरे ब्रह्मान्द मे गून्ज रही है। ध्यान मे गहरे उतरने पर यह सुनाई देता है। ब्रह्म की परिकल्पना वेदान्त दर्शन का केन्द्रीय स्तम्भ है, और हिन्दू धर्म की विश्व को अनुपम देन है।(यह ऐक प्रतिलिपि  है ) - रामदेवसिह बालेसर

सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

गलतियौ से जुदा तु भी नही मे भी नही।

गलतियौ से जुदा तु भी नही मे भी नही।. दोनो ईनसान हे खुदा तु भी नही मे भी नही।. तु मुझे और मैं तुझे  लम्हा देते हे मगर।.अपने अंऩदर झाकता तु भी नही मे भी नही। मसलेहतौ ने कर दिया दोनो मे पैदा ईकथलाप।वरना फितरत का बुरा तु भी नही मे भी नही।मुखतलिप सिमटो मे दोनो का सफर जारी रहा। ईक लम्है के लिये रुका तु भी नही मे भी नही। चाहते दोनो बहुत एक दुसरे को हे। मगर ये हकीकत हे कि मानता तु भी नही मे भी नही॥-रामदेवसिह (बालेसर)
गलतियौ से जुदा तु भी नही मे भी नही।. दोनो ईनसान हे खुदा तु भी नही मे भी नही।. तु मुझे और मैं तुझे  लम्हा देते हे मगर।.अपने अंऩदर झाकता तु भी नही मे भी नही। मसलेहतौ ने कर दिया दोनो मे पैदा ईकथलाप।वरना फितरत का बुरा तु भी नही मे भी नही।मुखतलिप सिमटो मे दोनो का सफर जारी रहा। ईक लम्है के लिये रुका तु भी नही मे भी नही। चाहते दोनो बहुत एक दुसरे को हे। मगर ये हकीकत हे कि मानता तु भी नही मे भी नही॥-रामदेवसिह (बालेसर)