शनिवार, 29 सितंबर 2012

पितृपक्ष पर कुछ खास बातों का रखें ख्याल!

पितृपक्ष पर कुछ खास बातों का रखें ख्याल!

पितृपक्ष शुरू हो रहा है। कल पहला श्राद्ध है। अगले कुछ दिनों तक ऐसे कुछ खास बातों का ख्याल रखना जरूरी है। क्या है श्राद्ध का महत्व? किन किन बातों का रखें ख्याल?

हिन्दु धर्म और वैदिक मान्यताओं के अनुसार अश्विन के श्राद्ध पक्ष के रूप में पुत्र का पुत्रत्व तभी सार्थक माना जाता है जब वह अपने जीवनकाल में जीवित माता-पिता की सेवा करे और उनके मरणोपरांत उनकी बरसी औ
र महालया (पितृपक्ष) में उनका विधिवत श्राद्ध करे। आश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से आश्विन की अमावस्या तक को पितृपक्ष या महालया पक्ष कहा गया है। तमिलनाडु में इसे आदि अमावसाई, केरल में करिकड़ा वावुबली और महाराष्ट्र में पितृ पंधरवड़ा नाम से जाना जाता है।

श्राद्ध का अर्थ अपने देवताओं, पितरों, वंश के प्रति श्रद्धा प्रकट करना होता है। इस साल 30 सितम्बर से पितृपक्ष शुरू हो रहा है। मान्यता है कि जो लोग अपने शरीर को छोड़कर चले जाते हैं, वे किसी भी रूप में अथवा किसी भी लोक में हों, श्राद्ध पक्ष में वे पृथ्वी पर आते हैं और उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धा के साथ जो शुभ संकल्प और तर्पण किया जाता है, वह श्राद्ध होता है।

वेदों के अनुसार पित्रों के लिए किये गये चार प्रकार के विशेष कर्म श्राद्ध कर्म कहलाते हैं तथा ये कर्म हैं हवन, पिंड दान, तर्पण और ब्राह्मण भोजन।

अपने पूर्वजों के प्रति स्नेह, विनम्रता, आदर व श्रद्धा भाव से किया जाने वाला कर्म ही श्राद्ध है। यह पितृ ऋण से मुक्ति पाने का सरल उपाय भी है। इसे पितृयज्ञ भी कहा गया है। हर साल भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन (कुंवार) माह की अमावस्या तक के यह सोलह दिन श्राद्धकर्म के होते हैं।

इस वर्ष श्राद्ध पक्ष की शुरुआत सर्वपितृ मोक्ष अमावस्या को होगा। देश, काल तथा पात्र में हविष्यादि विधि से जो कर्म यव (तिल) व दर्भ (कुशा) के साथ मंत्रोच्चार के साथ श्रद्धापूर्वक किया जाता है वह श्राद्ध होता है।-
रामदेवसिह बालेसर 

अपने आप को भारतीय कहलाने वाले गर्व करो

अपने आप को भारतीय कहलाने वाले गर्व करो |

पाश्चात्य संस्कृति पर मरने वालो शर्म करो |


भारत के प्राचीन ग्रन्थों में आज से लगभग दस हजार वर्ष पूर्व विमानों तथा उन के युद्धों का विस्तरित वर्णन है। सैनिक क्षमताओं वाले विमानों के प्रयोग, विमानों की भिडन्त, तथा ऐक दूसरे विमान का अदृष्य होना और पीछा करना किसी आधुनिक वैज्ञिानिक उपन्यास का आभास देते हैं लेकिन वह कोरी कलपना नहीं यथार्थ है।

प्राचीन वामानों के प्रकार

प्राचीन विमानों की दो श्रेणिया इस प्रकार थीः-

मानव निर्मित विमान, जो आधुनिक विमानों की तरह पंखों के सहायता से उडान भरते थे।
आश्चर्य जनक विमान, जो मानव निर्मित नहीं थे किन्तु उन का आकार प्रकार आधुनिक ‘उडन तशतरियों’ के अनुरूप है।

विमान विकास के प्राचीन ग्रन्थ

भारतीय उल्लेख प्राचीन संस्कृत भाषा में सैंकडों की संख्या में उपलब्द्ध हैं, किन्तु खेद का विषय है कि उन्हें अभी तक किसी आधुनिक भाषा में अनुवादित ही नहीं किया गया। प्राचीन भारतीयों ने जिन विमानों का अविष्कार किया था उन्हों ने विमानों की संचलन प्रणाली तथा उन की देख भाल सम्बन्धी निर्देश भी संकलित किये थे, जो आज भी उपलब्द्ध हैं और उन में से कुछ का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया जा चुका है। विमान विज्ञान विषय पर कुछ मुख्य प्राचीन ग्रन्थों का ब्योरा इस प्रकार हैः-

1. ऋगवेद- इस आदि ग्रन्थ में कम से कम 200 बार विमानों के बारे में उल्लेख है। उन में तिमंजिला, त्रिभुज आकार के, तथा तिपहिये विमानों का उल्लेख है जिन्हे अश्विनों (वैज्ञिानिकों) ने बनाया था। उन में साधारणत्या तीन यात्री जा सकते थे। विमानों के निर्माण के लिये स्वर्ण, रजत तथा लोह धातु का प्रयोग किया गया था तथा उन के दोनो ओर पंख होते थे। वेदों में विमानों के कई आकार-प्रकार उल्लेखित किये गये हैं। अहनिहोत्र विमान के दो ईंजन तथा हस्तः विमान (हाथी की शक्ल का विमान) में दो से अधिक ईंजन होते थे। एक अन्य विमान का रुप किंग-फिशर पक्षी के अनुरूप था। इसी प्रकार कई अन्य जीवों के रूप वाले विमान थे। इस में कोई सन्देह नहीं कि बीसवीं सदी की तरह पहले भी मानवों ने उड़ने की प्रेरणा पक्षियों से ही ली होगी। याता-यात के लिये ऋग वेद में जिन विमानों का उल्लेख है वह इस प्रकार है-

जल-यान – यह वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। (ऋग वेद 6.58.3)
कारा – यह भी वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। (ऋग वेद 9.14.1)
त्रिताला – इस विमान का आकार तिमंजिला था। (ऋग वेद 3.14.1)
त्रिचक्र रथ – यह तिपहिया विमान आकाश में उड सकता था। (ऋग वेद 4.36.1)
वायु रथ – रथ की शकल का यह विमान गैस अथवा वायु की शक्ति से चलता था। (ऋग वेद 5.41.6)
विद्युत रथ – इस प्रकार का रथ विमान विद्युत की शक्ति से चलता था। (ऋग वेद 3.14.1).

2. यजुर्वेद में भी ऐक अन्य विमान का तथा उन की संचलन प्रणाली उल्लेख है जिस का निर्माण जुडवा अशविन कुमारों ने किया था। इस विमान के प्रयोग से उन्हो मे राजा भुज्यु को समुद्र में डूबने से बचाया था।

3. विमानिका शास्त्र –1875 ईसवी में भारत के ऐक मन्दिर में विमानिका शास्त्र ग्रंथ की ऐक प्रति मिली थी। इस ग्रन्थ को ईसा से 400 वर्ष पूर्व का बताया जाता है तथा ऋषि भारदूाज रचित माना जाता है। इस का अनुवाद अंग्रेज़ी भाषा में हो चुका है। इसी ग्रंथ में पूर्व के 97 अन्य विमानाचार्यों का वर्णन है तथा 20 ऐसी कृतियों का वर्णन है जो विमानों के आकार प्रकार के बारे में विस्तरित जानकारी देते हैं। खेद का विषय है कि इन में से कई अमूल्य कृतियाँ अब लुप्त हो चुकी हैं। इन ग्रन्थों के विषय इस प्रकार थेः-

विमान के संचलन के बारे में जानकारी, उडान के समय सुरक्षा सम्बन्धी जानकारी, तुफान तथा बिजली के आघात से विमान की सुरक्षा के उपाय, आवश्यक्ता पडने पर साधारण ईंधन के बदले सौर ऊर्जा पर विमान को चलाना आदि। इस से यह तथ्य भी स्पष्ट होता है कि इस विमान में ‘एन्टी ग्रेविटी’ क्षेत्र की यात्रा की क्षमता भी थी।
विमानिका शास्त्र में सौर ऊर्जा के माध्यम से विमान को उडाने के अतिरिक्त ऊर्जा को संचित रखने का विधान भी बताया गया है। ऐक विशेष प्रकार के शीशे की आठ नलियों में सौर ऊर्जा को एकत्रित किया जाता था जिस के विधान की पूरी जानकारी लिखित है किन्तु इस में से कई भाग अभी ठीक तरह से समझे नहीं गये हैं।
इस ग्रन्थ के आठ भाग हैं जिन में विस्तरित मानचित्रों से विमानों की बनावट के अतिरिक्त विमानों को अग्नि तथा टूटने से बचाव के तरीके भी लिखित हैं।
ग्रन्थ में 31 उपकरणों का वर्तान्त है तथा 16 धातुओं का उल्लेख है जो विमान निर्माण में प्रयोग की जाती हैं जो विमानों के निर्माण के लिये उपयुक्त मानी गयीं हैं क्यों कि वह सभी धातुयें गर्मी सहन करने की क्षमता रखती हैं और भार में हल्की हैं।

4. यन्त्र सर्वस्वः – यह ग्रन्थ भी ऋषि भारदूाजरचित है। इस के 40 भाग हैं जिन में से एक भाग ‘विमानिका प्रकरण’के आठ अध्याय, लगभग 100 विषय और 500 सूत्र हैं जिन में विमान विज्ञान का उल्लेख है। इस ग्रन्थ में ऋषि भारदूाजने विमानों को तीन श्रेऩियों में विभाजित किया हैः-

अन्तरदेशीय – जो ऐक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं।
अन्तरराष्ट्रीय – जो ऐक देश से दूसरे देश को जाते
अन्तीर्क्षय – जो ऐक ग्रह से दूसरे ग्रह तक जाते

इन में सें अति-उल्लेखलीय सैनिक विमान थे जिन की विशेषतायें विस्तार पूर्वक लिखी गयी हैं और वह अति-आधुनिक साईंस फिक्शन लेखक को भी आश्चर्य चकित कर सकती हैं। उदाहरणार्थ सैनिक विमानों की विशेषतायें इस प्रकार की थीं-

पूर्णत्या अटूट, अग्नि से पूर्णत्या सुरक्षित, तथा आवश्यक्ता पडने पर पलक झपकने मात्र समय के अन्दर ही ऐक दम से स्थिर हो जाने में सक्ष्म।
शत्रु से अदृष्य हो जाने की क्षमता।
शत्रुओं के विमानों में होने वाले वार्तालाप तथा अन्य ध्वनियों को सुनने में सक्ष्म। शत्रु के विमान के भीतर से आने वाली आवाजों को तथा वहाँ के दृष्यों को रिकार्ड कर लेने की क्षमता।
शत्रु के विमान की दिशा तथा दशा का अनुमान लगाना और उस पर निगरानी रखना।
शत्रु के विमान के चालकों तथा यात्रियों को दीर्घ काल के लिये स्तब्द्ध कर देने की क्षमता।
निजि रुकावटों तथा स्तब्द्धता की दशा से उबरने की क्षमता।
आवश्यक्ता पडने पर स्वयं को नष्ट कर सकने की क्षमता।
चालकों तथा यात्रियों में मौसमानुसार अपने आप को बदल लेने की क्षमता।
स्वचालित तापमान नियन्त्रण करने की क्षमता।
हल्के तथा उष्णता ग्रहण कर सकने वाले धातुओं से निर्मित तथा आपने आकार को छोटा बडा करने, तथा अपने चलने की आवाजों को पूर्णत्या नियन्त्रित कर सकने में सक्ष्म।

विचार करने योग्य तथ्य है कि इस प्रकार का विमान अमेरिका के अति आधुनिक स्टेल्थ फाईटर और उडन तशतरी का मिश्रण ही हो सकता है। ऋषि भारदूाजकोई आधुनिक ‘फिक्शन राईटर’ नहीं थे परन्तुऐसे विमान की परिकल्पना करना ही आधुनिक बुद्धिजीवियों को चकित कर सकता है कि भारत के ऋषियों ने इस प्रकार के वैज्ञिानक माडल का विचार कैसे किया। उन्हों ने अंतरीक्ष जगत और अति-आधुनिक विमानों के बारे में लिखा जब कि विश्व के अन्य देश साधारण खेती बाडी का ज्ञान भी पूर्णत्या हासिल नहीं कर पाये थे।

5. समरांगनः सुत्रधारा – य़ह ग्रन्थ विमानों तथा उन से सम्बन्धित सभी विषयों के बारे में जानकारी देता है।इस के 230 पद्य विमानों के निर्माण, उडान, गति, सामान्य तथा आकस्माक उतरान एवम पक्षियों की दुर्घटनाओं के बारे में भी उल्लेख करते हैं।

लगभग सभी वैदिक ग्रन्थों में विमानों की बनावट त्रिभुज आकार की दिखायी गयी है। किन्तु इन ग्रन्थों में दिया गया आकार प्रकार पूर्णत्या स्पष्ट और सूक्ष्म है। कठिनाई केवल धातुओं को पहचानने में आती है।

समरांगनः सुत्रधारा के आनुसार सर्व प्रथम पाँच प्रकार के विमानों का निर्माण ब्रह्मा, विष्णु, यम, कुबेर तथा इन्द्र के लिये किया गया था। पश्चात अतिरिक्त विमान बनाये गये। चार मुख्य श्रेणियों का ब्योरा इस प्रकार हैः-

रुकमा – रुकमानौकीले आकार के और स्वर्ण रंग के थे।
सुन्दरः –सुन्दर राकेट की शक्ल तथा रजत युक्त थे।
त्रिपुरः –त्रिपुर तीन तल वाले थे।
शकुनः – शकुनः का आकार पक्षी के जैसा था।

दस अध्याय संलगित विषयों पर लिखे गये हैं जैसे कि विमान चालकों का परिशिक्षण, उडान के मार्ग, विमानों के कल-पुरज़े, उपकरण, चालकों एवम यात्रियों के परिधान तथा लम्बी विमान यात्रा के समय भोजन किस प्रकार का होना चाहिये।

ग्रन्थ में धातुओं को साफ करने की विधि, उस के लिये प्रयोग करने वाले द्रव्य, अम्ल जैसे कि नींबु अथवा सेब या कोई अन्य रसायन, विमान में प्रयोग किये जाने वाले तेल तथा तापमान आदि के विषयों पर भी लिखा गया है।

सात प्रकार के ईजनों का वर्णन किया गया है तथा उन का किस विशिष्ट उद्देष्य के लिये प्रयोग करना चाहिये तथा कितनी ऊचाई पर उस का प्रयोग सफल और उत्तम होगा। सारांश यह कि प्रत्येक विषय पर तकनीकी और प्रयोगात्मक जानकारी उपलब्द्ध है। विमान आधुनिक हेलीकोपटरों की तरह सीधे ऊची उडान भरने तथा उतरने के लिये, आगे पीछ तथा तिरछा चलने में भी सक्ष्म बताये गये हैं

6. कथा सरित-सागर – यह ग्रन्थ उच्च कोटि के श्रमिकों का उल्लेख करता है जैसे कि काष्ठ का काम करने वाले जिन्हें राज्यधर और प्राणधर कहा जाता था। यह समुद्र पार करने के लिये भी रथों का निर्माण करते थे तथा एक सहस्त्र यात्रियों को ले कर उडने वालो विमानों को बना सकते थे। यह रथ-विमान मन की गति के समान चलते थे।

कोटिल्लय के अर्थ शास्त्र में अन्य कारीगरों के अतिरिक्त सोविकाओं का उल्लेख है जो विमानों को आकाश में उडाते थे । कोटिल्लय ने उन के लिये विशिष्ट शब्द आकाश युद्धिनाह का प्रयोग किया है जिस का अर्थ है आकाश में युद्ध करने वाला (फाईटर-पायलेट) आकाश रथ, चाहे वह किसी भी आकार के हों का उल्लेख सम्राट अशोक के आलेखों में भी किया गया है जो उस के काल 256-237 ईसा पूर्व में लगाये गये थे।

उपरोक्त तथ्यों को केवल कोरी कल्पना कह कर नकारा नहीं जा सकता क्यों कल्पना को भी आधार के लिये किसी ठोस धरातल की जरूरत होती है। क्या विश्व में अन्य किसी देश के साहित्य में इस विषयों पर प्राचीन ग्रंथ हैं ? आज तकनीक ने भारत की उन्हीं प्राचीन ‘कल्पनाओं’ को हमारे सामने पुनः साकार कर के दिखाया है, मगर विदेशों में या तो परियों और ‘ऐंजिलों’ को बाहों पर उगे पंखों के सहारे से उडते दिखाया जाता रहा है या किसी सिंदबाद को कोई बाज उठा कर ले जाता है, तो कोई ‘गुलफाम’ उडने वाले घोडे पर सवार हो कर किसी ‘सब्ज परी’ को किसी जिन्न के उडते हुये कालीन से नीचे उतार कर बचा लेता है और फिर ऊँट पर बैठा कर रेगिस्तान में बने महल में वापिस छोड देता है। इन्हें कल्पना नहीं, ‘फैंटेसी’ कहते हैं।

अपने आप को भारतीय कहलाने वाले गर्व करो |
पाश्चात्य संस्कृति पर मरने वालो शर्म करो |- 
रामदेवसिह बालेसर 

बुधवार, 26 सितंबर 2012

शब्दों के मोती


सतारा के साहूकार देवराव अनगढ़ के यहां एक बालक राम नौकरी करता था। एक दिन साहूकार ने राम से अपने हाथों पर पानी डालने के लिए कहा। राम पानी डालने लगा तो उसकी नजर साहूकार के कानों पर चली गई और पानी इधर-उधर गिरने लगा। यह देखकर साहूकार चिल्लाकर बोले, 'किधर देख रहे हो? पानी मेरे हाथों पर क्यों नहीं डालते?' राम बोला, 'क्षमा कीजिएगा महाराज, आपके कान की बाली के तेजस्वी मोतियों में मेरी नजर अटक गई थ
ी।' साहूकार उसका मजाक उड़ाते हुए बोले, 'मूर्ख कहीं का, एक-एक मोती हजारों रुपये का है।

तुझ जैसे दरिद्र को सपने में भी ये नहीं मिल सकते। कभी तुम्हारे बाप-दादाओं ने...।' तभी बात काटकर राम बोला, 'देखिए महाराज, मेरे बाप-दादाओं पर मत जाइए। मैं आपकी नौकरी छोड़ता हूं, जिस दिन आपके जैसी बाली पहनने लायक हो जाऊंगा उसी दिन आपको अपना मुंह दिखाऊंगा।' यह कहकर वह वहां से निकल गया। चार महीने इधर-उधर भटकता हुआ राम काशी पहुंचा। वहां न उसके रहने का ठिकाना था और न ही भोजन का। पर उसे इसकी परवाह नहीं थी। उसे तो विद्वान बनना था, चाहे कितने ही कष्ट क्यों न आएं।

कुछ समय बाद एक दयालु आचार्य ने उसे अपनी कुटी में आश्रय दे दिया। वह वहां रहने लगा। बारह वर्षों तक वह अध्ययन करता रहा। अब वही बालक राम व्याकरण, तर्कशास्त्र, अर्थशास्त्र तथा न्याय शास्त्र में पारंगत हो चुका था। वह राम शास्त्री के रूप में प्रसिद्ध हो गया। राम शास्त्री की विद्वता से पूना के विद्वान बहुत प्रभावित हुए। उन्हें नाना साहब पेशवा ने उच्च पद प्रदान किया। शासकीय अधिकारी के रूप में वे जब सतारा पहुंचे तो बूढ़े देवराव अनगढ़ ने उनका स्वागत- सत्कार किया और उनसे क्षमा-याचना की। राम शास्त्री बोले, 'आप क्षमा न मांगें। आज मैं जो कुछ भी हूं आपकी बदौलत ही हूं। मैं तो आपका कृतज्ञ हूं।' साहूकार राम शास्त्री के प्रति नतमस्तक हो गए।
 

शनिवार, 22 सितंबर 2012

||¤|| जय क्षात्र-धर्म ||¤||


सिंह सवन,सत्पुरुष वचन,कदलन फलत एक बार,
तिरया-तेल राणा हमीर हठ चढ़े न दूजी बार !!!!!!!!!
_/\_\_:)
आप सभी सम्मानित और कर्तव्यनिष्ठ राजपूतों के
माध्यम से पूरे गौरवशाली राजपूत समाज को सहर्ष
सूचित किया जाता है कि अपने सौराष्ट्र के शूरवीर
योद्धा पर हाल ही में चलचित्र बनाने का यज्ञ समान
महान एवं महत्वपूर्ण-कार्य सफलतापूर्वक पूरा हुआ
है | हम आपको बताना चाहेंगे कि ये चलचित्र
गुजरती भाषा में है और बहुत निकटवर्ती समय में
इसका संस्करण अन्य भाषाओँ में भी पूरा होगा |
चलचित्र का नाम है :-
"वीर हमीरजी - सोमनाथ नि सखाते" |
सबसे मत्वपूर्ण एवं रोचक बात है कि इस महान
चलचित्र का चुनाव 'Oscar' के लिए भारत के ही
सतरह अन्य चलचित्रों के साथ हुआ है | आप
सभी को इस बात पर केन्द्रित करना चाहेंगे कि
ये मात्र चलचित्र ही नहीं बल्कि अपने
गौरवशाली-राजपूत-समाज कि धरोहर है | सच्च
बोला जाये तो ऐसे शूरवीर के बारे में कोई भी लेख
या नाटक/अभिनय बहुत ही छोटा पड़ता है,और ऐसे
ही महान राजपूतों ने इस पवित्र-भारत-भू को अपने
रक्त से सींचा है,हम इस फिल्म के माध्यम से
अपने लोगों के निकट निस्वार्थ भाव से जुड़ सकेंगे
और अपने विकारों कि सफलतापूर्वक समीक्षा भी
कर सकेंगे | संभवतः ये चलचित्र तत्कालीन
गौरवशाली-राजपूत-पीढ़ी को जोश से भर देगा !!!!!!!!!
||¤|| जय जय राणा हमीर ||¤||


||¤|| जय भवानी ||¤||
||¤|| वन्दे-मातरं ||¤||
||¤|| जय माँ करणी ||¤||
||¤|| जय सिया-राम ||¤||
||¤|| जय क्षात्र-धर्म ||¤||
||¤|| वीर भोग्या वसुंधरा ||¤||
||¤|| जय महाराणा,जय जय राजपूताना ||¤||
||¤|| जननी जन्मभूमिस्च स्वर्गादपि गरीयसी ||¤||
||¤|| मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र जी कि जय ||¤||
 — 

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

शादी में सात की जगह चार फेरों की परम्परा

विवाह एक ऐसी परंपरा है जहाँ केवल स्त्री-पुरुष का मिलन ही नहीं बल्कि दो परिवारों का मिलन भी होता है| हिन्दू धर्म में अलग-अलग क्षेत्रों में विवाह संस्कारों की अलग-अलग विधि पाई जाती है, पर अक्सर सुनने को मिलता है कि "सात फेरे" एक ऐसी रस्म है जिसके बिना किसी भी क्षेत्र में विवाह पूर्ण नहीं माना जाता| 
वर्ष 1985 में 'घर-द्वार' फिल्म में एक गीत फिल्माया गया था "सात फेरों के सातों वचन...",अगर इसी गीत को कुछ इस प्रकार गाया जाए "चार फेरों के सातों वचन..." तो थोड़ा अजीब नहीं लगेगा?

यूँ तो बचपन से बहुत सी शादियाँ देखी पर कभी ध्यान ही नहीं दिया कि हमारे यहाँ सात नहीं सिर्फ चार फेरे ही होते है| जब कुछ दिनों पहले मेरी सहेली की शादी थी राजस्थान में तब मैंने देखा कि उसके सिर्फ चार फेरे हुए थे, तब से मन में यह जानने की जिज्ञासा हुई कि आखिर ऐसा क्यूँ? सात फेरों की जगह सिर्फ चार फेरे ही क्यों ?
कुछ लोगों से पूछा कि उनकी शादी में कितने "फेरे" हुए? तो किसी ने कहा -चार, तो किसी ने कहा - 'फेरे तो सात ही होते है, सात फेरों के बिना विवाह अधुरा होता है|' गांव व घर के बुजुर्गों से पूछा तो उन्होंने बताया कि-“हमारे राजपूत समाज में शादी में चार ही फेरे होते है इन चार फेरों में से तीन में दुल्हन आगे तथा एक में दूल्हा आगे रहता है| ये चार फेरे चार पुरुषार्थो-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के प्रतीक हैं| यही बात शास्त्रों में भी लिखी है|”

साथ ही बुजुर्गों से ही राजपूत समाज में चार ही फेरे क्यों होते है के सम्बन्ध में एक मान्यता के बारे में भी सुनने को मिला| मान्यतानुसार राजस्थान के प्रसिद्ध लोक देवता पाबू जी राठौड़ का जब विवाह हो रहा था और फेरों की रस्म चल ही रही थी उन्होंने तीन ही फेरे ही लिए थे जिसमें वधु आगे थी कि उसी समय उन्हें एक सूचना मिली कि एक वृद्ध महिला की गायें लुटेरे लुट कर ले जा रहे है| उस वृद्धा ने अपनी बहुत ही अच्छी नस्ल की एक घोड़ी पाबूजी राठौड़ को इस शर्त पर दी थी कि जब उसके पशुधन की सुरक्षा के लिए कभी जरुरत पड़े तो वे तुरंत हाजिर होंगे अत: पाबू जी राठौड़ ने अपना वो वचन निभाने के लिए बीच फेरों में ही पशुधन की रक्षा के लिए जाने का निर्णय लिया और चौथे फेरे में आगे होकर फेरों की रस्म को चार फेरों में पूर्ण कर दिया और उसी वक्त पाबू जी गठजोड़े को छोड़कर युद्ध के लिए निकल पड़े| और उस वृद्धा के पशुधन की रक्षार्थ लुटेरों से लड़ते हुए शहीद हो गए थे|

पाबू जी द्वारा अपने विवाह में फेरों के उपरांत बिना सात फेरे पूरे किये ही बीच में उठकर गोरक्षा के लिए जाने व अपना बलिदान देने के बाद राजस्थान में राजपूत समुदाय में अब भी विवाह के दौरान चार फेरों और सात वचनों कि परंपरा है| ऐसी मान्यता कुछ बुजुर्ग लोग बताते है|

अब सात की जगह चार फेरों का वास्तविक कारण तो बहुत सारे है पर हाँ आज भी राजस्थान में राजपूत समाज में सात की जगह चार फेरों व सात वचनों के साथ ही विवाह की रस्म पूरी की जाती है| इंटरनेट पर इस संबंध में और जानकारी लेने पर पता चला कि देश के और भी राज्यों में सात की जगह चार,पांच फेरों की रस्में निभाई जाती है| साथ ही वैदिक काल में भी चार फेरों से विवाह पूर्ण कराने का वर्णन मिलता है|
राजपूत महिलाएं भी फेरों की रस्म के समय जो गीत गाती है उनमें सिर्फ चार फेरों का ही जिक्र होता है-
"पैलै तो फेरै लाडली दादोसा री पोती
दुजै तो फेरै लाडली बाबोसा री बेटी
अगणे तो फेरै काकां री भतीजी
चौथै तो फेरै लाडली होई रे पराई |"


यदि आपके पास भी इस संबंध में ज्यादा जानकारी हों तो कृपया टिप्पणी के माध्यम से इस फेरों की इन परम्पराओं पर प्रकाश डालने का कष्ट करें|- रामदेवसिह बालेसर