"पृथ्वीराज चौहान व राजकुमारी संयोगिता का अमर-प्रेम"
पृथ्वीराज चौहान (1168-1192) और संयोगिता की प्रेमकथा राजस्थान के इतिहास में स्वर्ण से अंकित है, वीर राजपूत जवान पृथ्वीराज चौहान को उनके नाना सा ने गोद लिया था, वर्षों दिल्ली का शासन सुचारु रूप से चलाने वाले पृथ्वीराज शब्द-भेदी बाण चलाने मे प्रवीण थे, संयोंगिता कन्नौज के राजा जयचंद की पुत्री थी, वह बड़ी ही सुन्दर थी, उसने भी पृथ्वीराज की वीरता के अनेक किस्से सुने थे, उसे पृथ्वीराज देवलोक से उतरा कोई देवता ही प्रतीत होता था, वो अपनी सहेलियों से भी पृथ्वीराज के बारे में जानकारियां लेती रहती थी, एक बार दिल्ली से पन्नाराय चित्रकार कन्नौज राज्य में आया हुआ था, उसके पास दिल्ली के सौंदर्य और राजा पृथ्वीराज के भी कुछ दुर्लभ चित्र थे, राजकुमारी संयोंगिता की सहेलियों ने उसको इस बारे में जानकारी दी। फलस्वरूप राजकुमारी जल्दी ही पृथ्वीराज का चित्र देखने के लिए उतावली हो गयी, उसने चित्रकार को अपने पास बुलाया और स्वयं चित्रकार पन्नाराय से महाराज पृथ्वीराज का चित्र दिखने का आग्रह किया, पृथ्वीराज को देख मोहित सी हो गयी, उसने चित्रकार से वह चित्र देने का अनुरोध किया जिसे चित्रकार ने सहर्ष ही स्वीकार लिया, इधर राजकुमारी के मन में पृथ्वीराज के प्रति प्रेम हिलोरे ले रहा था वहीं दूसरी तरफ उनके पिता जयचंद पृथ्वीराज की सफलता से अत्यंत भयभीत थे और उससे इर्ष्या भाव रखते थे, चित्रकार पन्नाराय के बनाए चित्र को देख पृथ्वीराज भी राजकुमारी संयोगिता का चित्र देखकर मोहित हो गए, चित्रकार के द्वारा उन्हें राजकुमारी के मन की बात पता चली तो वो भी राजकुमारी के दर्शन को आतुर हो पड़े, राजा जयचंद हमेशा पृथ्वीराज को नीचा दिखाने का अवसर खोजता रहता था, यह अवसर उसे जल्दी प्राप्त हो गया उसने संयोगिता का स्वयंवर रचाया और पृथ्वीराज को छोड़कर भारतवर्ष के सभी राजाओं को निमंत्रित किया और उसका अपमान करने के लिए दरबार के बाहर पृथ्वीराज की मूर्ती दरबान के रूप में खड़ी कर दी, इस बात का पता पृथ्वीराज को भी लग चूका था और उन्होंने इसका जय चन्द के शब्दों और उसी भाषा में जवाब देने का मन बना लिया । उधर स्वयंवर में जब राजकुमारी संयोगिता वरमाला हाथो में लेकर राजाओ को पार करती जा रही थी पर उसको उसके मन का वर नज़र नहीं आ रहा था अंतत: सभी राजाओ को पार करते हुए वो जब अंतिम छोर पर पृथ्वीराज की मूर्ति के सामने से गुजरी तो उसने वही अपने प्रियतम के गले में माला डाल दी, समस्त सभा में हाहाकार मच गया, राजा जयचंद ने अपनी तलवार निकल ली और राजकुमारी को मारने के लिए दोड़े पर उसी समय पृथ्वीराज आगे बढ कर संयोगिता को थाम लिया और घोड़े पर बैठाकर निकल पड़े, वास्तव में पृथ्वीराज ने स्वयं मूर्ति की जगह खड़े हो गए थे। इसके बाद तो राजा जयचंद के मन में पृथ्वीराज के प्रति काफी कटुता भर गयी और वो अवसर की तक में रहने लगा, अजमेर व दिल्ली के राजा पृथ्वीराज व अफगानिस्तान के मोहम्मद गोरी के 17 युद्ध हुए जिनमे से 16 युद्धो मे हमेशा मोहम्मद गौरी पृथ्वीराज चौहान के हाथो पराजित हुआ पर हर बार पृथ्वीराज चौहान ने सहर्दयता का परिचय देते हुए मोहम्मद गौरी को हर बार जीवित छोड़ दिया पर अंतिम युद्ध मे कुंठा-ग्रस्त कन्नौज के राजा व संयोगिता के पिता राजा जयचन्द ने गद्दारी करते हुए मोहम्मद गोरी को सैन्य मदद दी और इसी वजह से मोहम्मद गौरी की ताकत दोगुनी हो गयी तथा 17वी बार के युद्ध मे पृथ्वीराज चौहान मोहम्मद गोरी से द्वारा पराजित होने पर पृथ्वीराज चौहान को मोहम्मद गोरी के सैनिको द्वारा उन्हें बंदी बना लिया गया एवं उनकी आँखें गरम सलाखों से जला दी गईं तथा अपने साथ ले गया व भाँति भाँति की यातनाये देने के पश्चात जब मो.गोरी ने पृथ्वीराज को मारने का फैसला किया तभी महा-कवि चंदबरदायी (पृथ्वीराज के अभिन्न-सखा) ने मोहम्मद गोरी तक पृथ्वीराज के शब्द भेदी बाण छोड़ने की काला मे माहिर होने के बारे खबर व इसकी इस कला के प्रदर्शन की बात पहुँचाई तो रोमांचित होकर मोहम्मद गोरी ने मंजूरी दे दी और प्रदर्शन के दौरान गोरी के "शाबास आरंभ करो" लफ्ज के उद्घोष के साथ ही भरी महफिल में चंद बरदायी ने "चार बास चौबीस गज अंगुल अष्ठ प्रमाण ता पर बेठो है गोरी मत चुके चौहान" दोहे द्वारा पृथ्वीराज को मोहम्मद गोरी के बैठने के स्थान का संकेत दिया तभी अचूक शब्द-भेदी बाण से पृथ्वीराज ने गोरी को मार गिराया तत्पशत दुर्गति से बचने हेतु दोनों मित्रो ने एक दूजे का वध कर दिया तथा दुखद समाचार सुनकर संयोगिता भी आत्म-दाह कर सती हो गयी .
पृथ्वीराज चौहान (1168-1192) और संयोगिता की प्रेमकथा राजस्थान के इतिहास में स्वर्ण से अंकित है, वीर राजपूत जवान पृथ्वीराज चौहान को उनके नाना सा ने गोद लिया था, वर्षों दिल्ली का शासन सुचारु रूप से चलाने वाले पृथ्वीराज शब्द-भेदी बाण चलाने मे प्रवीण थे, संयोंगिता कन्नौज के राजा जयचंद की पुत्री थी, वह बड़ी ही सुन्दर थी, उसने भी पृथ्वीराज की वीरता के अनेक किस्से सुने थे, उसे पृथ्वीराज देवलोक से उतरा कोई देवता ही प्रतीत होता था, वो अपनी सहेलियों से भी पृथ्वीराज के बारे में जानकारियां लेती रहती थी, एक बार दिल्ली से पन्नाराय चित्रकार कन्नौज राज्य में आया हुआ था, उसके पास दिल्ली के सौंदर्य और राजा पृथ्वीराज के भी कुछ दुर्लभ चित्र थे, राजकुमारी संयोंगिता की सहेलियों ने उसको इस बारे में जानकारी दी। फलस्वरूप राजकुमारी जल्दी ही पृथ्वीराज का चित्र देखने के लिए उतावली हो गयी, उसने चित्रकार को अपने पास बुलाया और स्वयं चित्रकार पन्नाराय से महाराज पृथ्वीराज का चित्र दिखने का आग्रह किया, पृथ्वीराज को देख मोहित सी हो गयी, उसने चित्रकार से वह चित्र देने का अनुरोध किया जिसे चित्रकार ने सहर्ष ही स्वीकार लिया, इधर राजकुमारी के मन में पृथ्वीराज के प्रति प्रेम हिलोरे ले रहा था वहीं दूसरी तरफ उनके पिता जयचंद पृथ्वीराज की सफलता से अत्यंत भयभीत थे और उससे इर्ष्या भाव रखते थे, चित्रकार पन्नाराय के बनाए चित्र को देख पृथ्वीराज भी राजकुमारी संयोगिता का चित्र देखकर मोहित हो गए, चित्रकार के द्वारा उन्हें राजकुमारी के मन की बात पता चली तो वो भी राजकुमारी के दर्शन को आतुर हो पड़े, राजा जयचंद हमेशा पृथ्वीराज को नीचा दिखाने का अवसर खोजता रहता था, यह अवसर उसे जल्दी प्राप्त हो गया उसने संयोगिता का स्वयंवर रचाया और पृथ्वीराज को छोड़कर भारतवर्ष के सभी राजाओं को निमंत्रित किया और उसका अपमान करने के लिए दरबार के बाहर पृथ्वीराज की मूर्ती दरबान के रूप में खड़ी कर दी, इस बात का पता पृथ्वीराज को भी लग चूका था और उन्होंने इसका जय चन्द के शब्दों और उसी भाषा में जवाब देने का मन बना लिया । उधर स्वयंवर में जब राजकुमारी संयोगिता वरमाला हाथो में लेकर राजाओ को पार करती जा रही थी पर उसको उसके मन का वर नज़र नहीं आ रहा था अंतत: सभी राजाओ को पार करते हुए वो जब अंतिम छोर पर पृथ्वीराज की मूर्ति के सामने से गुजरी तो उसने वही अपने प्रियतम के गले में माला डाल दी, समस्त सभा में हाहाकार मच गया, राजा जयचंद ने अपनी तलवार निकल ली और राजकुमारी को मारने के लिए दोड़े पर उसी समय पृथ्वीराज आगे बढ कर संयोगिता को थाम लिया और घोड़े पर बैठाकर निकल पड़े, वास्तव में पृथ्वीराज ने स्वयं मूर्ति की जगह खड़े हो गए थे। इसके बाद तो राजा जयचंद के मन में पृथ्वीराज के प्रति काफी कटुता भर गयी और वो अवसर की तक में रहने लगा, अजमेर व दिल्ली के राजा पृथ्वीराज व अफगानिस्तान के मोहम्मद गोरी के 17 युद्ध हुए जिनमे से 16 युद्धो मे हमेशा मोहम्मद गौरी पृथ्वीराज चौहान के हाथो पराजित हुआ पर हर बार पृथ्वीराज चौहान ने सहर्दयता का परिचय देते हुए मोहम्मद गौरी को हर बार जीवित छोड़ दिया पर अंतिम युद्ध मे कुंठा-ग्रस्त कन्नौज के राजा व संयोगिता के पिता राजा जयचन्द ने गद्दारी करते हुए मोहम्मद गोरी को सैन्य मदद दी और इसी वजह से मोहम्मद गौरी की ताकत दोगुनी हो गयी तथा 17वी बार के युद्ध मे पृथ्वीराज चौहान मोहम्मद गोरी से द्वारा पराजित होने पर पृथ्वीराज चौहान को मोहम्मद गोरी के सैनिको द्वारा उन्हें बंदी बना लिया गया एवं उनकी आँखें गरम सलाखों से जला दी गईं तथा अपने साथ ले गया व भाँति भाँति की यातनाये देने के पश्चात जब मो.गोरी ने पृथ्वीराज को मारने का फैसला किया तभी महा-कवि चंदबरदायी (पृथ्वीराज के अभिन्न-सखा) ने मोहम्मद गोरी तक पृथ्वीराज के शब्द भेदी बाण छोड़ने की काला मे माहिर होने के बारे खबर व इसकी इस कला के प्रदर्शन की बात पहुँचाई तो रोमांचित होकर मोहम्मद गोरी ने मंजूरी दे दी और प्रदर्शन के दौरान गोरी के "शाबास आरंभ करो" लफ्ज के उद्घोष के साथ ही भरी महफिल में चंद बरदायी ने "चार बास चौबीस गज अंगुल अष्ठ प्रमाण ता पर बेठो है गोरी मत चुके चौहान" दोहे द्वारा पृथ्वीराज को मोहम्मद गोरी के बैठने के स्थान का संकेत दिया तभी अचूक शब्द-भेदी बाण से पृथ्वीराज ने गोरी को मार गिराया तत्पशत दुर्गति से बचने हेतु दोनों मित्रो ने एक दूजे का वध कर दिया तथा दुखद समाचार सुनकर संयोगिता भी आत्म-दाह कर सती हो गयी .
जय राजपूताना_/\_जय भवानी"
निवेदक